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________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:६६-७० युक्तमुक्तं न गृह्णासि कुपुत्र यदि मद्वचः । मानप्राणधनध्वंसी प्रत्यूहस्तेऽन्यथा भवेत् ।। ६६ ॥ ६६. 'हे ! पूत्र !! यदि उचित कही गयी मेरी बात नही ग्रहण करते हो, तो तुम्हारा मान, प्राण, धन का ध्वन्स करने वाला विघ्न सम्भव है ।' श्रुत्वेति पितृसन्देशं स भृत्यानब्रवीद् वरम् । तत् पर्णोत्सपथा यामः सुखं तत्रैव नः सदा ॥ ६७ ॥ ६७. पिता के श्रेष्ठ सन्देश को सुनकर, भृत्यों से कहा-'पर्णोत्स' पथ से हम जायेंगे और वही (हमें) सदैव सुख है।' अथोचुस्ते तव भ्राता दाता जातोऽत्युदारधीः । स्वलक्ष्मी भृत्यसात् कर्तुं स क्षमो न भवान् क्वचित् ॥ ६८ ॥ ६८. उन लोगों ने कहा-'तुम्हारा वह उदार बुद्धि एवं दाता भ्राता अपनी लक्ष्मी को नौकरों को देने में समर्थ हैं, तो क्या आप नहीं है ?' वरं मरणमेवास्तु तदने नोऽद्य सेवया । विक्रमादिगुणीनं न त्वामेवं भजामहे ।। ६९ ॥ ६९. 'सेवा करते हुए, हमलोगों को उसके समक्ष मरना श्रेष्ठ है और इस प्रकार विक्रम आदि गुणों से रहित, तुम्हारी सेवा हमलोग नहीं कर सकेगें।' अग्रजानुजयोः राजपुत्रयोः सुखदुःखयोः । विपर्ययं व्यधाद् वेधाः प्रमातेव विभागिनोः ॥ ७० ॥ ७०. बिभागी अग्रज एवं अनुज राजपुत्रों में प्रमाता' सदृश विधाता ने सुख एवं दुःख का विपर्यय कर दिया। पाद-टिप्पणी : आक्रमण करने के लिये गया ( ४४२-६६० ) । पाठ-बम्बई। पाद-टिप्पणी : ६७. (१) पर्णोत्स : पूछ : सुल्तान ने दूसरे पुत्र ७०. ( १ ) प्रमाता : एक मत है कि प्रमाता हाजी खाँ को संघर्ष बचाने के लिये लोह कोट भेज एक राज्याधिकारी का पद था। उसे न्याय प्रशासदिया ( फिरिस्ता : ४७१ )। कीय अधिकारी कहते थे। दसरा मत है कि गज सेना का यह एक अधिकारी था, उसका शाब्दिक अर्थ तवक्काते अकबरी में भी यहीं लिखा है- राज्य के अन्न भाग का एक माप या तौल करने 'हाजी खाँ सुलतान के आदेश से लोहर कोट पर वाला था।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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