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________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:३३-३७ काव्यशास्त्रश्रुतैर्गीतनृत्यतन्त्रीचमत्कृतैः आजीवमनयत् कालं कार्यानुद्विग्नमानसः ॥ ३३॥ ३३. उसने कार्यों से बिना उद्विग्न मन हुये, काव्यशास्त्र श्रवण तथा गीत, नृत्य एवं वीणा के चमत्कार से जीवन पर्यन्त काल-यापन किया। न्याय्यं कुर्वन्ति शास्त्रज्ञाः कार्यभारं सुधीरतः । तेभ्यः क्षिप्त्वा च स्वे धर्मे तिष्ठतेत्येवमभ्यधात् ॥ ३४ ॥ ३४. सुबुद्धिरत शास्त्रज्ञ 'न्याय करते हैं। अतः कार्यभार उन्हें समर्पित कर, 'अपने धर्म पर स्थित रहो' यह निर्देश दिया। अवार्यवेगैः सततमाशुगेर्यस्य ताडिताः। आसन् वनदिगन्तेषु मशका इव शत्रवः ॥ ३५ ॥ ३५. जिसके अवारणीय वेगशाली वाणी द्वारा ताड़ित शत्रु, मशक सदृश बन (अटवी) दिगन्तों में चले गये। तस्य स्वपरवृत्तान्तं नित्यमन्विष्यतश्चरैः । केवलं स्वप्नवृत्तान्तो बभूवाविदितो विशाम् ॥ ३६ ॥ ३६. अपने एवं दूसरे के वृतान्त का नित्य अन्वेषणकर्ता, उस राजा को गुप्तचरों द्वारा प्रजाओं का केवल स्वप्न वृतान्त ही अविदित रहता था। गृहं गृहस्थवृत्तस्य ध्यायतो नीतिशालिनः । अन्यायान्नाशकद्धतुं काकिनीमपि कश्चन ॥ ३७॥ ३७. नीतिशाली एवं ध्यानी गृहस्थ से अन्यायपूर्वक, कोई काकिनी (एक कौड़ी) भी नहीं ले सकता था। पाद-टिप्पणी: पुराण मे भी 'राजा नश्चार चक्षुषा' (२ : २४ : पाठ-बम्बई ६३ ) तया उद्योगपर्व मे 'चारैः पश्यन्ति राजाना' ३६. (१) गुप्तचर : कौटिल्य ने गुप्तचर (३४ : ३४ ) कहा गया है। जैनुल आबदीन का पर चार अध्याय लिखा है (१:११-१४)। गुप्तचर संघठन इतना संगठित था कि उसे राज्य का कामन्दक (१२: २५-४९) ने भी विस्तार से इस सब वृतान्त ज्ञात हो जाता था। विषय पर लिखा है। उसने चर को गुप्तचर की सुलतान स्वयं रात्रि में भेष बदल कर, श्रीनगर संज्ञा दी है। कौटिल्य ने पञ्चसंस्था में उदास्थित, की सड़कों पर लोगों की स्थिति जानने के लिये घूमता गृहपतिक, वैदेहक, तापस, सत्री तथा तीक्ष्ण नामक था (तारीख हसन : पाण्डु० : १२२; हैदर मल्लिक : गुप्तचरों को रखा है। गुप्तचर राजा की आँख कहे पाण्डु० : १२१ बी०)। गये हैं। वे राज्य में विचरण करते थे । कामन्दक पाद-टिप्पणी : ने 'चारचक्षुर्भहीपतिः' अर्थात् गुप्त चार राजा की ३७. (१) काकिनी = कौडी : विनिमय के आँखें हैं, कहा है (१२ : ३८)। विष्णुधर्मोत्तर लिये बीसवी शताब्दी के द्वितीय शतक तक मुद्रा रूप
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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