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________________ १० जैन राजतरंगिणी राग के समकक्ष है । इसमें षड्ज स्वर, ग्रह, अंश और म्लेच्छ मानता न्यास है । ( २ ) मालव : मालवा प्राचीन मालवा अवन्ती के पूर्व तथा गोदावरी के था । कामसूत्र मे अवन्ती तथा मालवा का प्रदेश रूप में किया गया है । वायु तथा मारकण्डेयपुराणो के अनुसार पर्वताश्रयी है । ब्रह्म, वायु, कूर्म पुराणों ने उन्हें पारियात्र पर्वत के समीपस्थ लिखा है । पराशर तन्त्र, मालव तथा मल्ल अलग मानता है । प्राचीन काल में मालवा गणतन्त्र था । सप्त मालव का उल्लेख पद्मपुराण में मिलता है । समुद्रगुप्त प्रयाग स्तम्भलेख मे मालवा का उल्लेख । बौद्धकालीन सोलह जनपदों में एक है । मालवा के ग्रामों की संख्या ११८०९२ दी गयी है। उज्जैन मालवा की राजधानी थी । काल मे उत्तर में वर्णन सत्ररहवी शताब्दी के ने इस राग का वर्णन किया है । एक मत है कि वर्तमान अहीर जाति ही प्राचीन आभीर जाति है । शकों के समान आभीर लोग हिन्दुस्तान के बाहर से आये थे । भारत के पश्चिमी, मध्यवर्ती एवं दक्षिणी भाग में आबाद हो गये । यह इनका वर्णन स्पष्ट है । मालवा राग की परि- बलशाली तथा पुष्ट शरीर होते थे । वे नृत्य-प्रिय भाषा दी गयी है - थे। मेरे काशी की भूमि पर बहुत अहीर अबाद है । अपने बाल्यकाल में मैं देखता था । विवाह आदि के समय वे नगाड़ों पर नाचते थे । स्त्रियाँ भी नाचती थी । अब यह प्रथा लुप्त हो गयी है (इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस सन् १९५९ ई० आभीर : पृष्ठ : ९१ ) । गमधाश्च यसो रिसो निधौ पसौ मगौ । रिसो निस्ते स्वरैरेभिमालिवः परिगीयते ॥ कामसूत्र में गुजरात के आभीर राज्य का उल्लेख है । जोधपुर शिलालेख मे आभीरों के चरित्र पर प्रकाश डाला गया है। भिलसा 'विदिशा' तथा झाँसी के के मध्य में आभीरों का निवास स्थान था । प्रयाग के शिलास्तम्भ पर भी आभीर शब्द का उल्लेख है । महाभारत में उल्लेख है कि सरस्वती नदी शूद्र तथा आभीरों के क्षेत्र में जाकर लुप्त हो जाती है। यह क्षेत्र विनशान है। सिरसा के आसपास का भूखण्ड इसमें आता । जयमंगला भाष्य में उन्हें कुरुक्षेत्र में निवास करते दिखाया गया । संगीतज्ञ हृदय नारायण 'हृदयकोतुक' ग्रन्थ मे आधुनिक स्वर इस राग का है मध संरें संनिध प स म ग रे स नि स। भट्ट माधव का मत है कि वह ग्राम राग है । षडज् ही अंश, ग्रह एवं न्यास है । [ १ : १ : २५ | पद्मपुराण उन्हें हूण, किरात, पुलिन्द, पुक्षस, यवन, कणक के साथ रखकर उन्हे म्लेच्छों की सन्तान मानता है । ( ३ ) आभीर आभीर लोग एक समय हेरात तथा कन्दहार के मध्यवर्ती क्षेत्र 'अवीरवन' में रहते थे । उनका वही मूल स्थान मालूम होता है । भारत में राजस्थान मरुभूमि के उत्तर आबाद थे । एक आभीर राज दक्षिणा पथ में उत्तर-पश्चिम की ओर तृतीय शताब्दी में था । रामायण एवं ब्रह्मपुराण आभीरों को दस्यु मानता है । मत्स्यपुराण शक, पुलिन्द, चूलिका, यवन, कैवर्त के साथ रखता उन्हें शक्तिसगम तन्त्र में ( ३ : ७२० ) आभीर देश को विन्ध्य शैल स्थित माना गया है । उसके दक्षिण कोकण तथा उत्तर-पश्चिम ताप्ती नदी थी । वह काठियावाड़ तथा दक्षिणी सौराष्ट्र से बहुत दूर नही था । प्रथम तथा द्वितीय शताब्दी में वे मरुभूमि के निवासी थे परन्तु कालान्तर मे उनकी प्रगति दक्षिण दिशा की ओर हुई । तृतीय शताब्दी में वर्ती क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित किया था । आभीरों ने उत्तरीय कोंकण तथा नासिक के समीप - कामसूत्र ( ६ : ४ : २४ ) के अनुसार आभीरों का क्षेत्र श्रीकण्ठ अर्थात् थानेश्वर तथा कुरुक्षेत्र था । भागवत उन्हे सौवीर तथा अवन्ति मध्य रखता है ।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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