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________________ ( ७७ ) अभ्यंतर वेदी सूर्यविवै अर बाहा वेदी सूर्य:वर्षे अंतराल है सो ल्यावना । याही प्रकार कालोदक समुद्र पुष्कराध द्वीपविर्षे भी अंतरालका प्रमाण त्यावनां ॥ ३७३ ।। अव चार क्षेत्र कहे हैं दो दो चंदरवि पडि एक्कक हादि चारखेत्तं तु ॥ पंचसय दससहियं रविविवाहियं च चारमही ॥ ३७४ ॥ द्वौ द्वौ चंदरवीप्रति एकैकं भवति चारक्षेत्रं तु ॥ पंचशतं दशसहितं रविविवाधिकम् च चारमही ॥ ३७४ ॥ अर्थ-दोय दोय चंद्रमा वा सूर्यप्रति एक चार क्षेत्र सो कितना है ! पांचसै दश योजन पर सूर्य चित्रका प्रमाणकरि अधिक है । भावार्थ-चंद्रमा वा सूर्यका गमन करका जु क्षेत्र गली सो चार क्षेत्र कहिए ताका व्यास पांचसै दश योजन अर योजनका अठतालीस इकसठिवां भाग प्रमाण है ५१० । १८ तिस च्यार क्षेत्र विर्षे गली निका प्रमाण आगे कहेंगे तहां जिस गलीवि एकचंद्रमाका सूर्य गमन करै तिसही गली विर्षे दुसरा गमन कर है। ताते दोय दोय चंद्रमा व सूर्यप्रति एक एक चार क्षेत्र है ।। ३७४ ॥ ___मागें तिन चंद्रमासूर्यनिका जो चार क्षेत्र ताका विभागका नियम जंबुरविंदू दीवे चरंति सीदि सदं च अवसेस । लवणे चरति सेसा सगखेत्तेव य चरंति ॥ ३७५ ॥ जंबरविंदवः द्वीपे चरंति अशीति शतं च अवशेषम् ॥ लवणे चरति शेपाः स्वकस्वकक्षेत्रे एव च चरंति ॥३७५॥
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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