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________________ (७०) ४१६५-५२९२।१६।४।६५-५२९२।१६४/६५-५२९२।१६ 3०२ । ११ । २८%D०२।११। ६६९७५ । १४ ४ । ६५-५२९२ । १६ ॥ ४ । ६५-५२९२ । १६ जगत्प्रतरको सात तीन छह सात दोय पांच अंक र दश विदी अर मार्ग बारह अव्याणवै इनका गुणकार र प्रतरांगुल पणट्ठी आगे वावनसें वाणवे सोलह विदी इनका भागहार भया । सो इतने सर्वे योतिषी विव है । ७३६ ७२५००००००००००१२९८ १६५-५२९२०००००००००००००००० बहुरि स्थान सदश अपवर्तन कहिए हीन अधिक अकनिकी न गिणिकरि दाहकी विर्षे दाहकी सैंकडा विर्षे सैकडा इत्यादि यधास्थान अपवर्तन करना तिस न्याय करि सात तीनने आदिदै करि गुणकारकै वीस अंक पर पांच दोयने आदिदेकरि भागहारकै वीस अंकनिका अपवर्तनकरि दोय जायगा अभाव करना । ऐसा मनवि विचारि-"वेसदछप्पण्णंगुल" इत्यादि सूत्रकरि दोयसै छप्पन अंगुलका वर्ग जो पणठ्ठी गुणित प्रतरांगुल ताका भाग जगत्प्रतरको दीजिए इतने ४ । ६५। ज्योतिषी बिंब हैं। ऐसा आचार्यनें कह्या । सोई असंख्यात द्वीप समुद्र संबंधी सर्व ज्योतिषी बिंबनिका प्रमाण जाननां ।। ३६१ ।। आगें एक चंद्रमाका परिवाररूप ग्रहनक्षत्र तारे तिनका प्रमाण कहे हैं अडसीदठा वीसा ग्रहरिक्खा तार कोडकोडीणं ॥ छापहिसहस्साणि य णवसयपण्णत्तरिगि चंदे ॥ ३६२ ।। अष्टाशीत्यष्टाविंशतिः ग्रहनक्षयास्ताराः कोटीकोटीनां ।। षट्पष्ठि सहस्राणि च नवशतपंचसप्ततिरेकस्मिन चंद्रे ॥ ___ अर्थ:-अध्यासी अर अट्ठाईस ग्रह अर नक्षत्र हैं । भावार्थ-ग्रहअठ्यासी हैं नक्षत्र अध्यासी है। बहुरि तारे छयासहि हजार नवसै
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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