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________________ (४६). मागें चंद्रमाका मण्डलकी वृद्धिहानिका अनुक्रमकू कहै हैचंदाणयसोलसमें किण्हो सुको य पण्णरदिणोति ॥ हेछिल्ल णिच राहगमणविसेसेण वा होदि ॥ ३४२ ।। चंद्रो निजपोडशंकृष्णः शुक्लश्च पंचदशदिनान्तम् ।। अधस्तन नित्य राहुगमनविशेपेण वा भवति ।। ३४२॥ अर्थ--चन्द्रमण्डल है सो अपना सोलहवां भाग प्रमाण कृष्ण पर शुक्ल पंद्रह दिन पर्यंत हो है । भावार्थ-चंद्र विमानका जो सोलह भाग - विर्षे एक एक भाग.एक एक वि श्वेतरूप होइ स्वयमेव- पंद्रह दिन पर्यंत परिनमैं हैं। तहां चंद्रमाका विमानका क्षेत्र योजनका छप्पन एकसठिवां भाग प्रमाण ५ है तो एक कलाका केता होइ। ऐसे ताको सोलहका भाग दिए आठ करि अपवर्तन किए योजनका एक सौ माईस भाग करि तामें सात भाग प्रमाण एक कलाका प्रमाण भाया । बहुरि एक कलाका प्रमाण होई तो सोलह कलानिका केता होइ ऐसे दोय का अपवर्तन करि गुणे छप्पन इकसठिवां भाग प्रमाण आवै । बहुरि अन्य कोई आचार्यनिके अभिप्रायकरि चंद्रविमानफै नीचे राहु विमान गमन कर है तिस राहुका सदाकाल ऐसा ही गमन विशेष है जो एक एक कला चंद्रमाकी क्रमतै आछादे ना उघाडै है तिहकरि वृद्धि हानि है ॥ ३४२ ॥ : आगैं चंद्रादिकनिक वाहक कहिए चलावनेवाले देव तिनका आकार विशेष वा तिनकी संख्या कहैं हैं सिंहगयवसहजडिलस्सायारसुरा वहति पुवादि ॥ · इंदु सीणं सोलमसहस्समद्धद्धमिदरतिये ॥ ३४३ ॥ : . सिंहगजवृषभजटिलावाकारसुरा वहति पूर्वादिसू ।.. इंदुरवीणां पोडासहस्राणि तदर्धाकिममितरत्रये ॥३१३॥
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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