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________________ ( १२१ ) मागे राहुका गगनखण्ड कहिकरि ता नक्षत्रभुक्ति कहे हैंरविखण्डादो चारसभागृणं वज्जते जदो राहू ॥ तुम्हा तत्तो रुक्खा चार हिहिदिगिसहिखण्डहियो || ४०५ ॥ रविखण्डतः द्वादशभागोनं व्रजति यतो राहुः ॥ तस्मात्ततः ऋक्षाणि द्वादशहिर्तकपष्टिखण्डाधिकानि ॥४०५ अर्थ :- जाँत सूर्यकें खण्डनिते एकका बारहवां भाग घांटि राहु गमन करे हे । सूर्यका अठारह से तीस गगनखण्डन विषै एकका नारहवां भाग घटाएं अठारह गुणतीस गगनखण्ड अर ग्यारहका बारहवां भाग मात्र राहु एक मुहूर्त विप गमन करनेका प्रमाण हो है । इनतं इकसठका बारहवां भाग अधिक नक्षत्रनिक गमन करनेका प्रमाण हो है । कैसे 1 ११. इतना अधिक हो ? राहुका गगनखण्ड १८२९ नक्षत्रका गगन १२ खण्ड १८३५ स्याँ घटाएं ग्यारहका बारहवां भाग घटाएं इकसठिका बारहवां भाग अधिकका प्रमाण हो है । बहुरि " अहियदि रिक्खखंडे " इस सूत्र के न्यायकरि अधिकका भाग अपने अपनें नक्षत्रखण्ड निक दीएं शहके नक्षत्र का काल भाव है । asi rafठका बारहवां भाग छोडनेंदिपैं एक मुहूर्त हो तो उसे सीस अभिजित खण्डनि छोडनॅविप केते मुहूर्त होइ ऐसें उसे तीसकों trafor arrai भागका भाग देनां तहां भागहारका भागहार बारह ताक से तीसा गुणकारकरि साफ इकसठिका भाग देनां ६३० । १२ बहुरि इनको तीस सहित छहकर अपवर्तन करना १२६ । २ ६१ ६१ याकों अपने गुणकार करि गुण २५२ भागहारका भाग दिए च्यारिं ६१ •
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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