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________________ ( ११५ ) भावार्थ:- सूर्यविचतै नीचे आठसे योजन तौ समभूमि है अर तातें नीच हजार योजन पर्यंत चित्रापृथ्वी है तहां पर्यंत सूर्यका आताप फेले है । बहुरि सूर्यबिंबतें उपरि सौ योजन पर्यंत उर्ध्व दिशा विषै आताप फैलै है । विशेषार्थः -- सूर्यविधतें ऊपर सौ १०० योजन पर्यंत ज्योति है तहां पर्यंत सूर्यका आताप फैले हैं। ऐसे परिनिधि विष तो आताप फैलने का प्रमाण पूर्वे कया था इहां दक्षिण उत्तर उर्ध्व अधः दिशाविषै आताप फैलनेका प्रमाण कथा || ३९७ ॥ । 'आगें चंद्रमा सूर्य ग्रह इनके नक्षत्रमुक्ति के प्रतिपादन करनेकौ चाहता आचार्य सो प्रथम एक एक नक्षत्र संबंधी मर्यादारूप गगनखण्डनिक कहे हैं। - अभिजिस्स गगणखण्डा छस्सयतीसं च अवरमज्झवरे ॥ छप्पर से छके इगिदुतिगुणपणयुतसहस्सा ।। ३९८ ॥ अभिजितः गगनखण्डानि पट्शतत्रिंशत् च अवरमध्यचराणि ॥ षट् पंचदशे पट्के एक द्वित्रिगुणपंचयुतसहस्राणि ॥ ३९८ ॥ अर्थः- अभिजित नक्षत्र के गगनखंड उसे तीस हैं । बहुरि जघन्य मध्य उत्कृष्ट नक्षत्र क्रमतैं छह प्रमाणकौं घर तिनकै एक दोय तीन गुणां पांच संयुक्त एक हजार प्रमाण गगनखण्ड हैं । भावार्थ:---- परिधिरूप जो गगन कहिए आकाश ताके एक लाख नव हजार आठ खण्ड करिए तामें एक चंद्रमा संबंधी अभिजित नक्षत्र के छसै तीस गगनखण्ड है । छसै तीस खण्ड प्रमाण परिधिरूप आकाश क्षेत्र विषै अभिजित नक्षत्रकी सीमा मर्यादा है । बहुरि ऐसें ही छह जघन्य नक्षत्र तिन एक एकके एक हजार पांच गगनखण्ड है । बहुरि पंद्रह मध्य नक्षत्र तिन एक एकके दोय हजार दश गगनखण्ड हैं । बहुरि छह उत्कृष्ट नक्षत्र तिन एक एकके तीन हजार पंद्रह गगनखण्ड है । बहुरि छह उत्कृष्ट नक्षत्र तिन एक एकके तीन हजार पंद्रह
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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