SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २५७ संकुल फटत श्रीयांसनाथ जिनेन्द्रादि मुनि क्ष्यानवे कोड़ाकोदी क्ष्यानचै मोड़ क्ष्यानवे लाख सादेनी हजार व्यालीस मुनि सिद्ध पद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥१॥ कुसुमलता चंद्र-श्री मुनि संकुल कूट परम सुंदर सुखदाई । विमलनाथ भगवान जहां पंचम गति पाई ॥ सात शतक मुनि और प्यालिस जानिय । सत्तर कोड़ सात लाख हजार छै मानिये ॥ दोहा-अष्ट फर्मको नाश कर, मुनि अष्टम क्षिति पाय ॥ निनको में वंदन फरों, जन्ममरण दुम्न जाय ॥ ॐ ह्रीं थी संकुलटत श्री विमलनाथ जिनेंद्रादि मुनि सत्तर कोड़ सात लाख छ हजार सातसै व्यालीस मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिदिक्षेभ्यो अ॥१२॥ अअिल-कुट स्वयंप्रभु नाम परम सुंदर फही। प्रभु अनंत जिननाथ जहां शिवपद कही। मुनि जु कोदाकोदी क्ष्यान जानिये । सत्तर कोड़ जु सत्तर लाख घान्नानिये । सत्तर सहस जु और सातसे गाइये । मुक्ति गये मुनि तिन पद शील नवाइये । कदे जवाहर दास सुनी मन लायर्फ । गिरवरकों नित पूजी मन हरपायकै ॥ ॐ ह्रीं स्वयंभू करते श्री अनंतनाथ जिनेंद्रादि मुनि झ्यानवै कोड़ाफोढ़ी सत्तर लाग्न सात हजार सातसै मुनि सिद्धपद प्रताय सिद्विक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥१॥ चौपाई-कूट सुदत्त महा शुभ जानों। थी जिनधर्म नाथको थानी । मुनि तु कोड़ाकोड़ी उन तीस और कहे ऋषि फोड़ उनीस ।। लाख तु नव्वै सहस नौ सानों । सात शतक पंचा नव मानों | मोक्ष गंये वसु कर्मन चूर। दिघस रेल तुमही भरपूर ।। ॐ ह्रीं श्री सुदत्त फूटते श्री धर्मनाथ जिनेन्द्रादि मुनि उनतील फोडाकोडी उनीस कोड़ नव्यं लान नौ हजार सातसे पंचानवै मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्यपामिति स्याहा ॥१४ा है प्रभासी फूट
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy