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________________ २५६ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। नवाय ॥ तिनपद पूजौ भाव सौ, निज हित अर्घ चड़ाय ।। ॐ ह्रीं ललितकूट से श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्रादि मुनि नवसै चौरासी अर्व बहत्तर क्रोड़ अस्सीलाख चौरासी हजार पांचसै पचवन मुनि सिद्धपद प्राप्ताय अर्घ निर्वपामोति स्वाहा ॥८॥ पद्धडी छंद । सुबरनभद्र सो कूट जान । जह' पुष्पदंतको मुक्त थान ॥ मुनि कोड़ाकोड़ी कहै जु भाख । अरु कहे निन्यानवे लाख चार ॥१॥ सौ सात सतक मुनि कहे सात । रिपि असी और कहे विख्यात ।मुनि मुक्ति गये वसु कर्म काट । वंदी कर जोर नवाय माथ ॥२॥ॐ ह्रीं श्री समभकूटते पुष्पदंत जिनन्द्रादि मुनि एक कोड़ाकोड़ी निन्यानवै लाख सात हजार चारसै अस्सीमुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घा सुंदरी छंद-सुभग विद्युतकूट सु जानिये । परम अद्भुतता परमानियै ॥ गये शिवपुर शीतलनाथजी नमहुँ तिन पद कर धरि माथजी । मुनिजु कोड़ाकोड़ी अष्टहु । मुनि जो कोड़ी ब्यालिस जान हू ॥ कहे और जु लाख बत्तीस जू । सहस ब्यालिस कहे यतीश जू और तहसै नासै पांच सुजानिये । गये मुनि लिवपुरकों और जमानिये ॥ करहि पूजा जे मन लायकें। धरहि जन्मन भवमें आयके।। ॐहीं सुभग विद्यत कूटते श्री शीतलनाथ जिनेंद्रादि मुनि अष्ट कोडाकोड़ी व्यालीस लाख बत्तीस हजार नौसै पांच मुनि सिद्धपद् प्राप्ताय सिद्धिक्षेत्रेभ्यो अर्घ ॥१० ढार योगीरसा-कूटजु संकुल परम मनोहर श्रीयांस जिनराई । कर्म नाश कर अमरपुरी गये, बंदी शीस नवाई | कोडाकोड़ जुकहै क्यानवै क्ष्यान, कोड़ प्रमानौ ॥ लाख क्ष्यानवै साढ़े नवसै, . इकसठ मुनीश्वर जानो। ताऊपर ब्यालीस कहे हैं श्री मुनिके गुन गावै। त्रिविध योग' कर जो कोई पूजै सहजानंद पद पावै॥ ॐ ह्री.
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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