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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५० जैनेन्द्र-व्याकरणम् निर्वाह दर्शाया है । यथा— उदित्कार्यं वर्णकार्य च तदन्तादपि भवतीति वक्तव्यं भवती, श्रतिभवती, दातिः । नैतद् वक्तव्यम् | पृष्ठ १५ । यदि वार्तिक अभयनन्दी विरचित होते तो वह स्वयं अनर्थक वार्तिक रचकर उनका खण्डन न करता । इतना ही नहीं, अभयनन्दीसे पूर्ववर्ती विद्यानन्द जैनेन्द्र महावृत्ति १।४।३७ मैं पठित 'ध्यखे का वक्तव्या' वार्तिकका अष्टसहस्री [ पृष्ठ १३२ ] में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात्' इस रूप में अर्थतः अनुवाद करता है । 'य, ख' ये जैनेन्द्रके पारिभाषिक प्रयोग हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यनन्दोकी वृत्ति में वार्तिकोंके व्याख्यात होने तथा अष्टसहस्री में उद्धृत होनेसे इतना तो निश्चय है कि ये अभयनन्दीसे प्राचीन हैं। हमारा विचार है कि व्याकरण संबंधी अन्य ग्रन्थोंके समान वार्तिकपाठ भी श्राचार्यने स्वयं रचा होगा । परिभाषा - पाठ - परिभाषाएँ व्याकरण शास्त्रका महत्त्वपूर्ण भाग हैं। परिभाषाएँ दो प्रकार की हैं। कुछ सूत्रकार द्वारा स्वयं सूत्रों में पठित होती हैं । यथा - इको गुणवृद्धी [ श्रष्टा० ११११३ ] इकस्तौ [ जैनेन्द्र० १|१|१७ ] | कुछ सूत्र से बहिर्भूत होती हुई भी सूत्रकार द्वारा स्वीकृत होती हैं । पाणिनीय व्याकरण से संबद्ध परिभाषाएँ व्याडिकृत मानी जाती भाष्यकार पतञ्जलिने अनेक परिभाषाओं को सूत्रोंसे ज्ञापित किया है, अनेकको वे बिना ज्ञापकके प्रमाण मान लेते हैं । श्रभयनन्दीकी महावृत्ति में अनेक परिभाषाएँ उद्घृत हैं । कतिपय परिभाषाओं के ज्ञापक भी लिखे हैं । इन परिभाषाओंका पाठ पाणिनीय परिभाषाओं के समान होते हुए भी स्वतन्त्रानुसार परिवर्तित है । जैनेन्द्र संबद्ध परिभाषाओंका प्रवक्ता कौन है, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता । परिभाषा पाठका स्वतन्त्र ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया । परिभाषाओंकी व्याख्या - इन जैनेन्द्र परिभाषाओंकी व्याख्या भी किसी प्राचीन ग्रन्थकारने की थी | अभयनन्दी १९६१ पर लिखता है - सन्निपातपरिभाषाया अनित्यतां वच्यति । यहाँ ' वच्यति' क्रियाका कर्ता कौन है, यह अज्ञात है । परन्तु इससे इतना स्पष्ट है कि अभयनन्दीसे पूर्व किसीने परिभाषाओंकी व्याख्या रची थी। इस प्रकारका विचार परिभाषा वृत्तिनें ही सम्भव हो सकता है । आचार्य हेमचन्द्रने अपने व्याकरण से संबद्ध परिभाषाओं की स्वयं ही रचना की और स्वयं ही उनकी व्याख्या की । इसी प्रकार प्राचार्य पूज्यपादने भी स्वयं परिभाषा पाठ और उसकी व्याख्या लिखी हो यह सम्भव हो सकता है । शिक्षा - भयनन्दीने १ । १ । २ की वृत्ति में लगभग ४० शिक्षासूत्र उद्धृत किये हैं। ये अधिकांश मैं पिशल शिक्षासूत्रों से मिलते हैं । पुनरपि इनका प्रवचन जैनेन्द्र व्याकरणकी प्रक्रियानुसार किया हुआ है, यह दोनों की तुलनासे स्पष्ट है । यद्यपि ये जैनेन्द्र सम्बन्धी शिक्षासूत्र किसके द्वारा प्रोक्त हैं, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता, तथापि जैसे पिशलि, पाणिनि और चन्द्रगोमीने अपने-अपने शब्दानुशासनोंसे सम्बद्ध शिक्षासूत्रों का प्रवचन किया। इसी प्रकार सम्भव है आचार्य देवनन्दीने इन शिक्षा सूत्रों का भी प्रवचन किया हो। इसका विशेष वर्णन हम 'शिक्षाका इतिहास' नामक ग्रन्थमें करेंगे [ पाण्डुलिपि प्रायः तैयार हो चुकी है। १. देखो, श्री प्रेमीजीका 'देवनन्दीका जैनेन्द्र व्याकरण' लेख, यही ग्रन्थ पृष्ठ २४ । २. सं० व्या० शा० का इतिहास पृष्ठ २०७ । २. देखो महावृत्ति पृष्ट ४५५, ४५६ । इस सूची में कुछ परिभाषाएँ रह गई हैं। यथा- पृष्ठ १२ पर उद्घृत — “अनुबन्धकृतमनेकालत्वं न" परिभाषा । ४. देखो हमारे द्वारा सम्पादित तथा प्रकाशित 'शिक्षा-सूत्राणि' [ श्रपिशल, पाणिनीय तथा चान्द्र ] | For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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