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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण ३१ सर्वार्थसिद्धि टीका 'मोक्षमार्गस्य नेतार' आदि मंगलाचरण पर समन्तभद्रने 'श्रात्ममीमांसा' नामक ग्रन्थ लिखा है। इससे जान पड़ता है कि दोनों समकालीन एक दूसरेका आदर करनेवाले हैं और एक दूसरे के ग्रन्थोंसे सुपरिचित होनेके कारण ही यह संभव हुआ है कि देवनन्दि अपने जैनेन्द्र व्याकरण में समन्तभद्र का व्याकरणविषयक मत देते हैं और समन्तभद्र देवनन्दिकी सर्वार्थसिद्धि के मंगलाचरणपर अपनी आतमीमांसा निर्माण करते हैं । आचार्यं विद्यानन्द ने अपनी श्राप्तपरीक्षा के अन्त में लिखा है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्द्भुत सलिलनिधेरिन्द्धरत्नोद्भवस्थ, प्रोथानारम्भकाले सकलमल भिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुयशं स्वामिमीमांसितं तत्, विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्ध्यै ॥ १२३ ॥ अर्थात् प्रकाशमान रत्नों के उद्भवस्थान तत्त्वार्थशास्त्र रूप अद्भुत समुद्र के उत्थान या बढ़ावके आरम्भकाल में शास्त्रकार ( देवनन्दि ) ने तीर्थ के तुल्य जो प्रसिद्ध और प्रति यशस्वी स्तोत्र (मोक्षमार्गस्य नेतारं आदि) बनाया और जिसकी स्वामि ( समन्तभद्र ) ने मीमांसा की, उसीका अपनी शक्तिके अनुसार सत्यवाक्यार्थसिद्धि के लिए विद्यानन्दने बड़े चादर के साथ कथन किया । इसमें यह बिलकुल स्पष्ट रूपसे कह दिया गया है कि 'मोक्षमार्गस्य नेतार' इस मंगलाचरण पर ही ग्रामीमांसा रची गई है और उसीपर विद्यानन्द परीक्षा ( आप्तपरीक्षा ) लिखते हैं । परन्तु उक्त पद्यमें जो 'शास्त्रकारैः' पद पड़ा हुआ है, उसपर एक बड़ा भारी विवाद खड़ा कर दिया गया है और उसका अर्थ किया जाता है- तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति; जब कि वास्तवमें मोक्षमार्गस्य नेतारं आदि मंगलाचरण सर्वार्थसिद्धिका है। मूल तत्त्वार्थसूत्रका नहीं। क्योंकि यदि यह मंगलाचरण तत्त्वार्थसूत्रका होता तो उसकी टीका सभी दिगम्बर श्वेताम्बर टीकाकार जो प्राचीन हैं - अवश्य करते । और कोई न करता तो देवनन्दि पूज्यपाद तो [सर्वार्थसिद्धि में] श्रवश्य करते । सर्वार्थसिद्धि टीकाका पहला संस्करण स्व० पं० कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवेने प्रकाशित किया था। उसमें इसे टीकाके मंगलाचरणके रूपमें ही दिया है और भूमिका में भी उन्होंने इसे टीकाका ही बतलाया है। शोलापुरके पं० वंशीधरजी शास्त्रीके संस्करण में भी यह टोकाका है और यह संस्करण उन्होंने श्रागरेकी तीन प्राचीन प्रतियोंके आधारसे सम्पादित किया है । उसमेंकी एक प्रतिको तो वे ५०० वर्ष पुरानी बतलाते हैं। अकलंकदेव और विद्यानन्दने भी राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकमें इसकी टीका नहीं की है, श्वेताम्बर टीकाकार सिद्धसेन और हरिभद्र आदिने भो नहीं की । तत्त्वार्थसूत्रपाठ [ मूल ] की भी अधिकांश लिखित प्रतियाँ इस मंगलाचरण से रहित हैं । सनातनग्रन्थमाला प्रथम गुच्छक, जैननित्यपाठ संग्रह श्रादि मुद्रित प्रतियों में भी यह नहीं है । तत्त्वार्थसार में भी, जो तत्त्वार्थका एक तरहसे पल्लवित पद्यानुवाद है, अमृतचन्द्रने इस मंगल पद्यका अनुवाद नहीं किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह मंगलाचरण सर्वार्थसिद्धि टीका के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दिका है, इसीपर समन्तभद्रने आतमीमांसा और विद्यानन्दने आप्तपरीक्षाकी रचना की । १. दिगम्बर टीकाकारोंमें श्रुतसागर और भास्करनन्दिने 'मोक्षमार्गस्य' प्रादिकी टीका की है। इनमें श्रुतसागर विक्रमकी सोलहवीं शताब्दि के अन्तमें हुए हैं और भास्करनन्दि १३-१४ वीं शताब्दिमें | २. जिन पोथियों या गुटकोंमें मूल तत्वार्थसूत्र लिखा मिलता है, उसमें इस मंगलाचरणके साथ ही प्रायः "काल्यं द्रव्यपट्क" आदि संस्कृत पद्य और भगवती आराधना के प्रारम्भकी 'सिद्ध जयप्पसिद्धे' आदि दो गाथाएँ भी लिखी रहती हैं और उनके बाद 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः शुरू होता है । वास्तवमें जो लोग नित्यपाठ करते हैं, उन्होंने यह परम्परा चला दी है। For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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