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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् वि० सं० ५२६ में यह महामिथ्याती संघ उत्पन्न हुआ। वज्रनन्दि चूँ कि देवनन्दिके शिष्य थे, इसलिए इस संघ-स्थापना-काल के लगभग या दस बीस वर्ष पहले देवनन्दिका समय माना जा सकता है। सिद्धसेनके पूर्वोक्त निश्चित किये हए समयसे भी यह असंगत नहीं जान पड़ता। पं० युधिष्ठिर मीमांसकने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास लिखा है। उन्होंने जैनेन्द्र के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्रपरसे अनुमान किया है कि सिद्धसेनका कोई व्याकरण ग्रन्थ अवश्य होगा। उज्ज्वलदत्तकी उणादि सूत्र वृत्तिमें 'क्षपणक' के नामसे एक ऐसा सूत्र उदधृत है जिससे प्रतीत होता है कि क्षपणकने भी उणादि सूत्रोंपर कोई व्याख्या लिखी थी और उससे यह भी संभावना होती है कि क्षपणकने अपने शब्दानुशासनपर भी कोई वृत्ति रची होगी। मैत्रेयरक्षितने तंत्रप्रदीपमैं भी क्षपणकके व्याकरणका उल्लेख किया है। बहुतसे विद्वानोंकी राय है कि ज्योतिर्विदाभरणमैं बतलाये हुए विक्रमके नौ रत्नोंमें जो क्षपणक है, वही सिद्धसेन है और गुप्तवंशके चंद्रगुप्त (द्वितीय) ही विक्रमादित्य हैं। इतिहासज्ञ विन्सेंट स्मिथके अनुसार चन्द्रगुप्तका समय वि० सं० ४३२ से ४७० तक है और इस तरह सिद्धसेनका समय जो पं० सुखलालजीने विक्रमकी पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है, और भी पुष्ट हो जाता है। हेब्बुरुके दानपत्रमैं गंगवंशी महाराजा अविनीतके पुत्र दुविनीतको "शब्दावतारकारः देवभारतीनिबद्धवृहत्कथः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारः” ये तीन विशेषण दिये हैं जिनका अर्थ होता है-शब्दावतारके कर्ता, पैशाचीसे संस्कृतमें गुणाढ्यको बृहत्कथाको रचनेवाले और किरातार्जुनीय काव्यके पन्द्रह सगों के टीकाकार । इन विशेषणों में कोई ऐसी बात नहीं जिससे यह प्रकट हो कि देवनन्दि दुविनीतके शिक्षागरु थे या उनके समकालीन थे। परन्तु चूंकि शिमोगा जिलेके नगर ताल्लुकेके ४६ वे शिलालेखमें पूज्यपादको पाणिनीयके शब्दावतारका कर्ता बतलाया है, इसलिए दुविनीतके साथ लगे हुए "शब्दावतारकार" विशेषणसे कुछ विद्वानों को भ्रम हो गया और दोनोंको समकालीन समझकर गुरु-शिष्यका सम्बन्ध खड़ा कर दिया है । दुविनीतका राज्यकाल वि० सं० ५३९ से शुरू होता है, इसलिए इसीके लगभग पूज्यपादका समय मान लिया गया, परंतु मैसूरके आस्थान विद्वान् पं० शान्तिराज शास्त्रीने भास्करनन्दिकृत तत्त्वार्थटीकाकी प्रस्तावनामें इस भ्रमको स्पष्ट कर दिया है। इसलिए भले ही पूज्यपाद देवनन्दि दुविनीतके राज्यकाल में रहे हों, परन्तु केवल इस दानपत्रसे वह सिद्ध नहीं किया जा सकता। __ जैनेन्द्र व्याकरणके एक और सूत्र “चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" [४-४-१४०] में सिद्ध सेनके ही समान श्राचार्य समन्तभद्रूका उल्लेख है, जिससे समन्तभद्रका देवनन्दिसे पूर्ववर्ती होना सिद्ध होता है, परन्तु साथ ही १. सिरिपुज्जपाइसीसो दाविडसंघस्स कारणो दुह्रो । णामेण वज्जणंदी पाडवेदी महासत्तो ।। पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुरा-जादो दाविडसंघे महामोहो ॥ . २. प्रकाशक-भारतीय साहित्यभवन, नवाबगंज, दिल्ली । ___३. धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशंकुवेतालभट्टघटखर्परकालिदासाः। ख्यातो वराहमिहरो नृपतेः समायाः रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ ४. मैसूर एण्ड कुर्ग गैजेटियर, प्रथम भाग पृ० ३७३. ५. इस शिलालेखका वह 'न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञ' आदि पद्य इसके पहले पृष्ठ ३३ पर उद्धृत किया है। ६. बौद्धाचार्य चन्द्रौतिने "समन्तभद्" नामका एक व्याकरण लिखा था और चन्द्रकीर्ति धर्मकीर्तिसे भी पूर्ववर्ती है। १४ वीं शताब्दिमें लिखे हुए बौद्ध धर्मके इतिहाससे जो तिब्बती भाषामें है, और जिसका अंग्रेजी अनुवाद हो गया है इस बातकी सूचना मिलती है। पं० श्री दलसुख मालवणियाने अपने एक पत्रमें मुझे यह लिखा है। For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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