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________________ पंचमावृत्ति की प्रस्तावना 'भारतवर्ष धर्मप्रधान भूमि है' यह कहावत हमारे देश में बहुत समय से प्रचलित है। निस्सन्देह भारतीय जनता का आचार-विचार, अब से कुछ समय पहले तक, धर्मभाव से समन्वित रहा है । हमारे यहाँ के रीति-रिवाजों में, रहन-सहन में और जीवन-व्यापारों में धार्मिक भावना की स्पष्ट का अस्पष्ट झलक दृष्टिगोचर होती है । किन्तु पाश्चात्य लोगों का लम्बे काल तक इस देश पर शासन रहने से तथा भौतिक विज्ञान की विस्मयजनक उन्नति के कारण पाश्चात्य देशों के साथ भारत का आज जो निकटतर सम्पर्क बढ़ गया है उससे, आज भारतीय जनता अपने परम्परागत धर्मभाव से विच. लित और विमुख होती जा रही है । विगत एक-दो दशाब्दियों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट विदित होगा कि भारतीय जनता के अन्तःकरण में से धर्म का भाव कितनी द्रुतगति से क्षीण होता जा रहा है। धर्म के प्रति उपेक्षा का भाव रखना अथवा धर्म का विरोध करना आज 'प्रगति' के नाम से पुकारा जाता है। आँखें बंद करके किसी ओर दौड़ पड़ना ही अगर प्रगति कही जाती हो तो बात अलग है, पर प्रगति का लक्ष्य अगर वास्तविक अभ्युदय,स्थायी शान्ति और आध्यात्मिक शुचिता है, तो इसे प्रगति कैसे कहा जा सकता है ? सच्चे अभ्युदय और शाश्वत शान्ति का स्रोत तो धर्म ही है, और धर्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, लालसानिरोध, दान, शील, तप, सद्भावना और संयम धर्म के प्राण हैं । धर्म का विरोध करने का मतलब इन्हीं पवित्र एवं स्वर्गीय भावनाओं का विरोध करना है और धर्म से विमुख होने का अर्थ इनसे विमुख होना है। जिस दिन आज की तथाकथित प्रगति की __ मैजिल पूरी हो जायगी, अर्थात् धर्मभावना पूरी तरह मनुष्य के हृदय से
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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