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________________ (३१) 'उड्ढ वीससाए' त्ति ऊर्ध्व विस्रमया स्वभावेन 'निव्वाघाएण' त्ति कटाद्याच्छादनाभावात् । हिन्दो-भावार्थ हे भदन्त | कर्म-रहित की गति होती है ? हा, गौतम | होती है। हे भदन्त | कर्म-रहित की गति किस प्रकार होती है ? हे गौतम | कर्ममल से रहित होने के कारण, राग-द्वेष से रहित होने के कारण, गति-स्वभाव होने के कारण, कर्मबंधन का नाश होने से, कर्मरूप इन्धन के जल जाने से, पूर्व-प्रयोग* के कारण कर्म रहित जीव की गति होती है । कर्म-रहित जीव की गति को एक उदाहरण से समझिए। जैसे कोई पुरुष शुष्क, निश्छिद्र, अखण्डित, अलाबू-तुम्बक को क्रमश दर्भ (दूब) और कुशा से लपेटता है, फिर माटी के आठ लेपो से उसे लीपता है, तदनन्तर उसे धूप मे रखकर सूखाता है । उस के अच्छी तरह सूख जाने के पश्चात् अथाह से रहित, न तैरे जा सकने वाले, पुरुष से भी अधिक गहरे पानी मे उसे डाल देता है। वह तुम्बक माटी के उन आठ लेपो के गुरु, भारी और अत्यन्त भारी होने के कारण सलिलतल को उल्लघन कर के नीचे पृथ्वी-तल पर जाकर ठहर जाता है कितु जल के द्वारा माटी के लेपो के उतर जाने पर वह तुम्बक पृथ्वीतल से ऊपर उठता हुआ अन्त मे पानी के ऊपर आ देखा गया है कि वाण को चलाने के लिए सर्वप्रथम बल लगाया जाता है, उस बल के प्रयोग से फिर वह वाण आगे सरकता है। वैसे ही निष्कर्म आत्मा शरीर से बलपूर्वक निकलता है, उसी बल के प्रयोग से आत्मा मे आगे गति होती है, इसी बलप्रयोग को पूर्वप्रयोग कहा जाता है।
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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