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________________ (२३) 'इय' गाहा “इय' एव सर्वकालतृप्ता शाश्वदभावात् अतुल निर्वाणमुपगताः सिद्धा, सर्वदा सकलौत्सुक्यनिवृत्त , यतश्चैवमत 'शाश्वत' सवकालभावि 'अव्याबाध' व्याबाधावजित सुख प्राप्ता सुखिनस्तिष्ठन्तीति योग , सुख प्राप्ता इत्युक्ते सुम्बिन इत्यनर्थकमिति चेत्, नैव दु खाभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तव्यसुखप्रतिपादनार्थत्वादस्य, तथाहि-अशेषदोषक्षयत शाश्वतमव्याबाधसुख प्राप्ता सुखिन. सन्तः तिष्ठन्ति, न तु दु खाभावमात्रान्विता एवेति । हिन्दी-भावार्थ जैसे कोई पुरुष सब प्रकार के सुन्दर गुणो से युक्त भोजन को खाकर अमृत से तृप्त हुए व्यक्ति के समान पिपासा और क्षुधा से रहित हो जाता है, इसी तरह सदा तृप्त रहने वाले, उपमारहित, निर्वाण (शान्ति) को प्राप्त हुए सिद्ध शाश्वत (नित्य) और बाधा-रहित सुख को प्राप्त करके सुखी बने रहते है। मल पाठ * सिद्ध त्ति य बुद्ध त्ति य पारगय त्ति य परपरगय त्ति । उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असगा य ।।२०।। सिद्धा इति च बुद्धा इति च पारगता इति च परम्परागता इति । उन्मुक्त कर्मकवचा अजरा अमरा असगाश्च ॥ निस्तीर्णसर्वदु खा जाति-जरामरण-बधन-विमुक्ता । अव्याबाध सुखमनुभवन्ति शाश्वत सिद्धा.।। अतुलसुखसागरगता अव्याबाधमनुप प्राप्ता । सीमनागतामद्धा तिष्ठन्ति सुखिन सुख प्राप्ता ॥
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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