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________________ (२२) आर्षत्वादस्य-सिद्धिमुखस्य इतो वाऽनन्तरम् औपन्य-उपमानम् (इद) वक्ष्यमाण शृणुत वक्ष्ये इति । हिन्दी-भावार्थ इसी प्रकार सिद्धो का सुख उपमा रहित है। इसकी कोई उपमा नही है। सिद्धो का सुख उपमा के द्वारा कथन नहीं किया जासकता है, यह सत्य है, तथापि जनसाधारण के लिए सिद्धो के सुख को दृष्टान्त द्वारा बतलाया जायेगा। उसे सुनो। मूल पाठ * जह सव्वकामगुणिय पुरिसो भोत्तुण भोयण कोइ। तण्हाबुहाविमुक्को अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ।।१८।। इय सव्वकालितत्ता अतुल निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाह चिट्ठन्ति सुही सुह पत्ता ।।१९।। सस्कृत-व्याख्या 'जह' गाहा, 'यथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थ , 'सर्वकामगुणित' सजातसमस्तकमनीयगुण, शेष व्यक्तम्, इह च रसनेन्द्रियमेवाधिकृत्येष्टविषयप्राप्त्या औत्सुक्यनिवृत्त्या सुखप्रर्शन सकलेन्द्रियार्थावात्याऽशेषोत्सुक्यनिवृत्त्युपलक्षणार्थम्, अन्यथा बाधान्तरसम्भवात् सुखार्थाभाव इति । * यथा सर्वकामगुणितं पुरुषो भुक्त्वा भोजन कोऽपि । तृष्णाक्षुधाविमुक्त आस्ते यथा अमृततृप्तः ।। इति सर्वकालतृप्ता अतुल निर्वाणमुपगता सिद्धा. । शाश्वतमव्यावाध तिष्ठन्ति सुखिनः सुख प्राप्ता ॥
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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