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________________ (११) रहित स्थान रहता है, आत्मा के मुक्त हो जाने पर आत्मप्रदेश उस स्थान मे व्याप्त हो जाते है, परिणामस्वरूप शरीरस्थ उन जीवप्रदेशो का जो आकार रहता है, वह मुक्त दशा मे रहने नहीं पाता है। उस मे न्यूनता आ जाती है और वह न्यूनता भी शरीराधिष्ठित आत्मप्रदेशो के आकार के तीन भागो मे से एक भाग की होती है। इसी लिए ऊपर गाथा मे कहा गया है कि जोव का दीर्घ या ह्रस्व जो सस्थान होता है, उस मे से तीसरा भाग कम कर देने पर अवशिष्ट सस्थान सिद्ध-जीवो मे पाया जाता है। मल पाठ तिण्णि सया तेत्तीसा, धणू त्ति भागो य होइ बोधवा । एसा खलु सिद्धाण, उक्कोसोगाहणा भणिया ।।५।। - चत्तारि य रयणीओ-रयणि-त्ति भागूणिया य बोद्ध ब्वा । एसा खलु सिद्धाण, मज्झिमओगाहणा भणिया ॥६॥ एक्का य होइ रयणी, साहीया अगुलाइ अट्ठ भवे । एसा खलु सिद्धाण, जहण्णओगाहणा भणिया ।।७।। - * त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिशत् धनूषि त्रिभागश्च भवति बोधव्या । एषा खलु सिद्धानामुत्कृष्टा अवगाहना भणिता ॥ चतस्रश्च रतनय रत्निविभागोनिका च बोधव्या । एषा खलु सिद्धाना मध्यमावगाहना भणिता ॥ एका च भवति रनि साधिका अगुलानि अष्ट भवेयु । एषा खलु सिद्धाना जघन्यावगाहना भणिता ।।
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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