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________________ ( १० ) 1 जाने का कारण यह है कि शरीर मे आत्मप्रदेशो का जो फैलाव होता है, शरीर से बाहिर निकलने पर वह उस रूप मे नही रहने पाता है, तीसरा भाग उस में कम पड जाता है । तीसरा भाग कम हो जाने पर सिद्ध जीव के आत्म प्रदेशो का जो आकार होता है, वही प्रकार मोक्षावस्था मे उस सिद्ध जीव का बना रहता है । मूल पाठ * दोह वा हस्स वा ज चरिमभवे हवेज्ज सठाण । तत्तो तिभागहीण, सिद्धाणोगाहणा भणिया ||४|| संस्कृत - व्याख्या तथा चाह - 'दीह वा' गाहा, दीर्घं वा पञ्च धनु - शतमान हस्व वा-हस्तद्वयमान वा शब्दात् मध्यम वा यच्चरमभवे भवेत्सस्थान "तत " तस्मात् सस्थानात् त्रिभागहीना त्रिभागेन शुषिरपूरणात् सिद्धानामवगाहना - अवगाहन्ते अस्यामवस्थायामिति श्रवगाहना स्वावस्थैवेति भाव. भणिता उक्ता जिनैरिति । हिन्दी- भावार्थ (मुक्त) का दीर्घ - बडा या हस्व - छोटा उस मे से तीसरा भाग कम कर देने चरमशरीरी जीव जो सस्थान होता है, पर जो शेष रहता है, वह सस्थान सिद्ध जीवो की अवगाहना (आकार) होती है । हार्द यह है कि चरमशरीरी जीव के शरीर मे नासिकारध्र, कर्ण - रन्ध्र आदि जो आत्मप्रदेशो से * दीर्घं वा हस्व वा यत् चरमभवे भवेत् संस्थानम् । ततः त्रिभागहीन, सिद्धानामवगाहना भणिता ॥
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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