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________________ भी लिखे हैं जिनको लोग जैनोंका सप्तभंगी न्याय कहते हैं, जैसेकि १ स्यादस्त्येव घट:-कथंचित घट है स्वगुणों की अपेक्षा घट अस्तिरूप है। २ स्यानास्त्येव घट:-कथंचित् घट नहीं है। ३ स्यादस्ति नास्ति च घट:-कथंचित् घट है और कथंचित् घट नहीं है। · ४ स्यादवक्तव्य एव घट:-कथंचित् घट अवक्तव्य है । ५ स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घटा-कथंचित् घट है और अबक्तव्य है। ६ स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च घट:-कथंचित् नहीं है तथा अवक्तव्य घट है। ७ स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घट:-कथचित् है नही है. इस रूपसे अवक्तव्य घट है। मित्रवरो! यह सप्त भंग है । यह घटपटादि पदार्थों में पक्ष प्रतिपक्ष रूपसे सप्त ही सिद्ध होते हैं जैसोकि घट द्रव्य स्वगुण युक्त अस्तिरूपमें है। प्रत्येक द्रव्यमें स्वगुण चार चार होते है द्रव्यत्व क्षेत्रत्व कालत्व भावत्व । घटका द्रव्य मृत्तिका है, क्षेत्र जैसे
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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