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________________ ( ८४ ) पुरुषः- ज्ञान चेतनाकी भी अनंत पर्याय हैं, आप कहीं पर बसते हैं ? व्यक्ति:- निज गुण परिणत निज स्वरूप शुक्ल ध्यानपूर्वक ऐसी निर्मल ज्ञान स्वरूप पर्याय में वसता हूं ( यह समभिरूढ नय है ) || पुरुषः- निज गुण परिणत निज स्वरूप शुक्ल ध्यानपूर्वक पर्याय में वर्धमान भावापेक्षा अनेक स्थान हैं, तो आप कहां पर बसते हैं ? व्यक्ति:-अनंत ज्ञान अनंत दर्शन शुद्ध स्वरूप निजरूपमें बसता हूँ || यह एवंभूत नयका वचन है || इस प्रकार यह सात ही नय वस्ती पर श्री अनुयोग द्वारजी सूत्रमें वर्णन किए गये हैं और श्री आवश्यक सूत्रमें सामायिक शब्दोपरि सप्त नय निम्न प्रकारसे लिखे हैं, जैसेकि - नैगम नयके मत में सामायिक करनेके जब परिणाम हुए तबी ही सामायिक हो गई || अपितु संग्रह नयके मतमें सामायिकका उपकरण लेकर स्थान प्रतिलेखन जव किया गया तब ही सामायिक हूई | और व्यवहार नयके मतमें सावध योगका जब परित्याग किया तब ही सामायिक हुई ॥
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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