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________________ ( २३ ) स्थानं एते नव संख्याकास्तथ्याः अवितथाः भावाः संति इति सम्बन्धः नव संख्यात्वं हि एतेषां भावानां मध्यमापेक्षं जघन्यतो हि जीवाजीवयोरेव वन्धादीनां अन्तर्भावात् द्वयोरेव संख्यास्ति उत्कृष्टतस्तु तेषां उत्तरोत्तर भेदविवक्षया अनन्तत्वं स्यात् ॥ भावार्थ:- तत्व नव ही हैं जैसे कि जीवतत्त्व १ अजीवतश्व २ पुण्यतत्त्व ३ पापतत्त्व ४ आस्रवतच्च ५ संवरतत्त्व ६ निर्ज - रातच ७ वंधतत्त्व ८ मोक्षतत्व ९ । सो जीवतत्त्व ही इन का ज्ञाता है न तु अन्य || जीवतत्त्वमें चेतनशक्ति इस प्रकार अभिन्न भावसे विराजमान हैं कि जैसे सूर्य्यमें प्रकाश मत्संडी में मधुरभाव | अजीवतत्त्वमें जडशक्ति भी प्राग्वत् ही विद्यमान है किन्तु वह शून्यरूप शक्ति है | जैसे बहुतसे वादित्र गाना भी गाते हैं किन्तु स्वयम् उस गीतके ज्ञानशून्य ही हैं ॥ पुण्यतन्त्र जीवको पथ्य आहारके समान सुखरूप है जैसे कि रोगीको पथ्याहारसे नीरोगता होती है, और रोग नष्ट हो जाता हैं । इसी प्रकार आत्मामें जब शुभ पुण्यरूप परमाणु उदय होते हैं उस समय पापरूप अशुभ परमाणु आत्मामें उदयमें न्यून होते हैं किन्तु सर्वथा पापरूप परमाणु आत्मा से
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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