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________________ क्योंकि व्यापक शब्द ही सिद्ध करता है कि प्रथम कोई वस्तु व्याप्य है जिसमें वह व्यापक हो रहा है। यदि परमात्माकी भी परलय मानी जाये तब ईश्वरपद ही खंडित हो गया तो भला सृष्टिकर्तृत्व गुण कैसे सिद्ध होगा ?. सो इस विषयको मैं यहांपर इसलिये विस्तारपूर्वक लिखना नही चाहता हूं कि मैं सिद्धान्तको ही लिख रहा हूं न तु खंडन मंडन ॥ __ अव नव तत्त्वका विवर्ण किञ्चित् मात्र लिखता हूं:जीवाजीवाय बंधोय पुगणं पावा सवोतहा। संवरो निजारा मोक्खो संतेएतहिया नव ॥ उत्तर ० गाथा १४ ॥ वृत्ति-जीवाश्चेतनालक्षणाः अजीवा धर्माधर्माकाशकालपुद्गलरूपाः बन्धो जीव कर्मणोः संश्लेषः पुण्यं शुभप्रकृति रूपं पापं अशुभं मिथ्यात्वादि आस्रवः कर्मबंधहेतुः हिंसा मृषाऽदत्तैमथुनपरिग्रहरूपः तथा संवराः समिति गुप्त्यादिभिरालवद्वारनिरोधः निर्जरा तपसा पूर्वाजितानां कर्मणां परिशाटनं मोक्षः सकलकर्मक्षयात् आत्मस्वरूपेण आत्मनोऽव
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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