SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि फिर भी उस कलशमें मत्संड्यादि द्रव्य प्रविष्ट करें तो प्रवेश हो जाते हैं उसी प्रकार आकाश द्रव्यमें जीव द्रव्य अजीब ठहरे हुए हैं। अपितु जैसे भूमिकामें नागदंत (कीला) को स्थान प्राप्त हो जाता है तद्वत् ही आकाश प्रदेशों में अनंत प्रदेशी स्कंध स्थिति करते हैं क्योंके आकाश द्रव्यका लक्षण है। अवकाश रूप है। अथ काल व जीवका लक्षण कहते हैं: वत्तणा लक्खणो कालो जीवो उवयोग लक्खणो नाणेणं दसणेणंच सुहेणय दुहेणय ॥ उत्त० अ० २० गाथा १०॥ वृत्ति-~-वर्तते अनवच्छिन्नत्वेन निरन्तरं भवति इति वर्तना सा वर्तना एव लक्षणं लिङ्गं यस्येति वर्तनालक्षणः काल उच्यते तथा उपयोगो मतिज्ञानादिकः स एव लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणो जीव उच्यते यतो हि ज्ञानादिभिरेव जीवो कक्ष्यते उक्त लक्षणत्वात् पुनर्विशेष लक्षणमाह ज्ञानेन विशेषाव. वोधेन च पुनदर्शनेन सामान्याववोधरूपेण च पुनः मुखेन च पु. नईखेन च ज्ञायते स जीव उच्यते ॥१०॥
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy