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________________ ( १२६ ) मुत्ती वे मद्दवे लाघवे सच्चे संजमे तत्रे चियाए बंनचेरवासे | ठाणांग सूत्र स्थान १० ॥ अर्थ:- सब अर्थोंको सिद्ध करनेवाली आत्माको सदैव काल ही उज्ज्वलता देनेवाली अंतरंग क्रोधादि शत्रुओंका पराजय करनेवाली ऐसी परम पवित्र क्षमा मुनि धारण करे १|| फिर संसारबंधन से विमोचनता देनेवाली कष्टोंसे पृथक् ही रखनेवाली निराश्रय वृत्तिको पुष्ट करनेवाली निर्ममत्वता महात्मा ग्रहण करे २ || और सदा ही कुटिल भावको त्याग कर ऋजुभावी होवे, क्योंकि माया ( छळ ) सर्व पदार्थों का नाश करती है ३ || फिर सर्व जीवों के साथ सकोम भाव रक्खे अर्थात् अहंकार न करे परं मानसे विनयादि सुंदर नियम का नाश हो जाता है ४ || साथ ही लघुभूत होकर विचरे अर्थात् किसी पदार्थके ममत्वके बंधन में न फंसे । जैसे वायु लघु होकर सर्वत्र विचरता है ऐसे मुनि परोपकार करता हुआ चिरे ५ ॥ पुनः सत्यव्रतको दृढतासे धारण करे अर्थात् पूर्ण सत्यवादी होवे ६ || संयम वृत्तिको निर्दोपतासे पालण करे। यदि किसी प्रकारसे परीषद पीड़ित करे तो भी संयमवृत्तिको कलंकित न करे ७ ॥ और तपके द्वारा आत्माको निर्मल करे ८ || ज्ञानयुक्त होकर साधुओंको अन्नपाणी आदि ला
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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