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________________ ( १२५ ) कदापि भी न करे क्योंकि शब्दोंका इंद्रियमें प्रविष्ट होनेका धर्म है । यदि रागद्वेष किया गया तो अवश्य ही कर्मोंका बंधन हो जायगा, इसलिये शब्दों को सुनकर शान्ति भाव रक्खे ॥. द्वितीय भावना-मनोहर वा भयाणक रूपोंको भी देखकर रागद्वेष न करे अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय वशमें करे ॥ तृतीय भावना-सुगंध-दुर्गंधके भी स्पर्शमान होने पर रागद्वेप न करे अपितु घ्राणेन्द्रिय वशमें करे ॥ चतुर्थ भावना-मधुर भोजन वा तिक्त रसादियुक्त भोजनके मिलनेपर सेंद्रियको वशमें करे अर्थात् सुंदर रसके मिल. नेसे राग कटुक आदि मिलने पर द्वेष मुनि न करे ॥ पंचम भावना-सुस्पर्श वा दुःस्पर्शके होनेसे भी रागद्वेष न करे अर्थात स्पर्शेन्द्रिय वशमें करे ॥ __ सो यह *पंचवीस भावनाओं करके पंच महाव्रतोंको धारण करता हुआ दश प्रकारके मुनिधर्मको ग्रहण करे । यथा दस विहे समण धम्मे पं. तं. खंती * पंचवीस मावनाओंका पूर्ण स्वरूप श्री आचाराङ्ग सूत्र श्री समवायाङ्ग सूत्र वा श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रसे देख लेना ॥
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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