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________________ प्रधान सम्पादकीय चौवन लेखोका परिचय करानेवाला चौथा सग्रह प्रस्तुत कर दिया। प्रस्तावनामें उन्होने लेखोका काल, प्रदेश, भापा, प्रयोजन, मुनिसंघ, राजवंश आदि दृष्टियोसे जो विश्लेपण व अध्ययन किया है वह बहुत महत्त्वपूर्ण है इसके लिए हम उनके बहुत कृतज्ञ है, हमें दुख है कि पण्डित नाथूरामजी प्रेमी आज हमारे बीच नही रहे ! कितना हर्प होता उन्हें इस नये लेख सग्रहको देखकर ! शिलालेख-सग्रहके इन भागोमें संकलित सामग्रीका जैन साहित्य और इतिहासके संशोधन कार्यमें विशेष उपयोग हो रहा है, और होगा इसमें सन्देह नही। किन्तु इस विषयमें अब तकके अनुभवके आधारसे कुछ सूचनाएँ कर देना हम अपना कर्तव्य समझते है-- . १. लेखोका जो मूल पाठ यहाँ प्रस्तुत किया गया है, वह सावधानी पूर्वक तो अवश्य लिया गया था, तथापि उसे अन्त-प्रमाण होनेका दावा नही किया जा सकता । कन्नड लेखोको यहां जो देवनागरीमें लिखा गया है उसमें भी लिपिभेदसे अशुद्धियां हो जाना सम्भव है। आगे-पीछे विशिष्ट विद्वानो-द्वारा पाठ व अर्थ-सशोधन सम्बन्धी लेख लिखे ही गये होगे। अतएव विशेष महत्त्वपूर्ण मौलिक स्थापनाओके लिए संशोधकोको मूलस्रोतो का भी अवलोकन कर लेना चाहिए। २ इधर कुछ कालसे ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है कि जहां दो आचार्योमे नाम-साम्य दिखाई दिया वहां उन्हें एक ही मान लिया गया। किन्तु यह वात भ्रामक है । एक ही नामके अनेक आचार्य विविध कालोमें भी हुए है और सम-सामयिक भी। अतएव उन्हें एक सिद्ध करनेके लिए नाममात्रके अतिरिक्त अन्य प्रमाणोकी भी खोज करना चाहिए। ३ इन प्रकाशित शिलालेखोसे यह अपेक्षा नहीं करना चाहिए कि उनमें समस्त प्राचीन आचार्योका उल्लेख आ ही गया है अतएव इनमें किसी आचार्यके नामका अभाव किसी विशिष्ट अनुमान व तर्कका आधार
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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