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________________ जैनशिलालेस मग्रह ६ जिममें शिलालेखोकी सस्या ५०० हो गयी। दमी बीच सन् १९०८ मे फ्रामीसी विद्वान गैरीनोकी एक रिपोर्ट प्रकावित हुई, जिसमें उन्होंने तव तक प्रकाशित हुए बाठ सौ पचास जैन मिललियोका परिचय कराना । हम सब सामग्री के सम्मुन आनेपर कुछ जैन विद्वानोको अग्निं गुली और उन्हें अनुभव हुआ कि जब तक इस सामग्रीका उपयोग करते हुए धर्म व साहित्य सम्बन्धी लेस नही लिये जायेंगे तवतक जैनधर्मका प्रामाणिक प्रतिहास प्रस्तुत नही किया जा सकता। स्वभावत उम 'समय जो विद्वान् जैन माहित्य और इतिहास संशोधनमें तल्लीन थे उन्हें हम आवश्यक्ताका विशेष रूपसे बोध हुआ । इनमें माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला मस्थापक व प्रधान सम्पादक स्वर्गीय प० नाथूरामजी प्रेमोकी याद आती है । उन्होंने ही अपनी प्रेरणाद्वारा जैनशिलालेस मग्रहका प्रथम भाग तैयार कराकर प्रस्तुत ग्रन्थमाला २८वे पुष्पके रूपमें प्रकामित किया, जिसमें श्रवणवेल्गो के उपर्युक्त पांच भी शिलालेस नागरी लिपिमं हिन्दी माग तथा विस्तृत भूमिका व अनुक्रमणिकाओं महित जिज्ञासुओं व लेकोको अति सुलभ हो गये । इमका तुरन्त ही हमारे माहित्य व इतिहास मशोधन कार्यपर महत्त्वपूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा । तद्विपयक लेखांमें इनके उपयोग द्वारा वडो वाहनीय प्रामाणिकता आने लगी जिसके लिए प्रेमजी जैसे विद्वान् बहुत आतुर थे । अब उन्हें अन्य शिलालेसी को भो इसी रूपमे सुलभ पानेको अभिलापा तीव्र हुई जिसके फलस्वम्प उक्त गैरीनो महोदयको रिपोर्टके आधार शिलालेख मग्रह भाग २ और 3 में ('ग्र० ४५-४६ मन् १९५२, १९५७) आठ सौ पचाम लेगोका पाठ व परिचय हमारे सम्मुस आ गया । मागेका लेग्व-मग्रह कार्य वडा कठिन प्रतीत हुआ, क्योकि इसके लिए कोई व्यवस्थित सूचियाँ उपलभ्य नही थी । किन्तु इस कार्यको पूरा कराना हमने अपना विशेप कर्तव्य समझा। सौभाग्यमे डॉक्टर विद्याधर जोहरापुरकरने यह कार्य भार अपने ऊपर लेकर विशेष प्रयासो द्वारा यह छह मी
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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