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________________ ३५० जैनशिलालेग्य-सग्रह [५२५द्वारा एक मण्डपको स्थापनाका उल्लेख है। दूमरेमें इसी व्यक्ति-बारा भूतिका पादपीठ अपित करनेका उल्लेख है। रविवारप्रतकी ममाप्तिपर यह दान दिये गये थे।] [ए. रि० म० १९१६ पृ० ८४] ५२८ मैसूर शक १७३६- सन् १८१६, काड शान्तीश्वर वसति-ामगृहक द्वारके पीतलके आवरणपर [ इस लेखमे दनिकार पयके पुत्र नागय-द्वारा ३९३ (सेर ) वजनके इम पीतलके गन्धकुटी ( द्वार ) के आवरण दान दिये जानेका उल्लेख है। यह दान आश्विन शु० १, शक १७३६, भाव संवत्सरके दिन दिया गया था। [ मूल लेख कन्नड लिपिम मुद्रित] [ए. रि० मै० १९३६ पृ० १०२] ५२९ मैसूर (शक १७३६ सन् १८१४) सस्कृत-कन्नड शान्तोश्वर वसति-सुसनासि द्वारकं आवरणपर श्रीमच्छाविजिनेन्स्य पचकल्याणसपद । श्रिया मेरुणिमगारं हसतश्चक्यवेश्मन ॥१॥ परायरचनोपेत कचाटमिदमद्भुतं । कारयामास सद्भक्त्या आवको जैनमार्गतः ॥२॥ नागनामा पितु स्वस्य मरिनागाह्वयस्य च । धनिकारपदाव्यस्य स्वर्मोक्षसुखलब्धये ॥३॥
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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