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________________ प्रस्तावना ૧૨ लेखमें दिये है। इस गच्छके चौथे लेख (क्र० ४७६ ) मे सन् १५५६ में देवकोति-मुनिचन्द्र-देवचन्द्र यह परम्परा दी है। लेखके ममय देवचन्द्रको कुछ दान मिला था। मेषपापाणगच्छके दो लेख है (क्र० २१४, ६०३) । पहले लेखमे सन् ११३० में प्रभाचन्द्र के शिष्य कुलचन्द्र आचार्यका वर्णन है। दूसरा लेख इस गच्छकी एक वमदिके बारेमें है।' पुस्तक गच्छका एक लेख (क्र. २४० ) सन् ११५० का है किन्तु यह वीच-बीचमै घिमा हुमा है अत. इसका तात्पर्य स्पष्ट नहीं है।' बारहवी-तेरहवी सदीके चार लेखोमे (क्र. २०२, ३१२, ३२६, ३७३) क्राणूरगणके कनकचन्द्र, माधवचन्द्र तथा सकलचन्द्र आचार्योका वर्णन है । इनका गच्छ नाम अज्ञात है। ___इस तरह कोई १५ लेखोसे क्राणूरगणका अस्तित्व दसवी सदीसे सोलहवी सदी तक प्रमाणित होता है। (श्रा ७) निगमान्वय-मूलमंघ-निगमान्वयका एक लेख (क० ३६०) सन् १३१० का है। इसमे कृष्णदेव-द्वारा एक मूर्तिको स्थापनाका उल्लेख है। ___ उपर्युक्त विवरणसे मूलमयके भेद-प्रभेदोका अच्छा परिचय मिलता है । कोई १५ लेखोमें किसी भेदका उल्लेख किये विना मूलसघका उल्लेख मिलता है। इनमें प्राचीनतर लेख (क्र० ११२, १४५, २०४) दसवी१. पहले सग्रहमें अपपापाणगच्छका पहला उल्लेख सन् १०७९ का है (क्र. २१६) २ पहले संग्रहमे इस गच्छका कोई उल्लेख नहीं है (देशीगण तया मेनगणमे भी पुस्तकगच्छ थे उनका वर्णन पहले भा चुका है।) ३. पहले सग्रहमें इस थन्वयका कोई लेख नहीं है। -
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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