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________________ प्रस्तावना देगीगणके कई उल्लेख मिले है । इनमे दो ९५० तथा १०९६ मे गुणचन्द्र और इन लेखोंमें देशी गणके साथ सिर्फ मूलमघ - देशीगण किसी उपभेदके बिना भी लेखामें ( क्र० ८३, १६९ ) सन् रविचन्द्र आचार्योंका उल्लेख है । कोण्डकुन्दान्वय यह विशेषण है । इस प्रकार उल्लेख है। इनमें प्राचीनतर लेख ( क्र० १९३, २२९, २५६ ) बारहवी सदीके है । कोई ८ लेखांमें देगीगणके साथ अन्य कोई विशेषण कोई १८ लेखोमें नही है । ऐसे लेखो में प्राचीनतर लेख १०३२ तथा १०५४ के है और इनमें कुछ दान देनेका वर्णन है । ( क्र० १२६, १३९, १४० ) मन् अष्टोपवासी कनकनन्दि आचार्यको ( या ३) कोण्डकुन्डान्चय-- देशी गणके पुस्तक गच्छको प्राय stusकुन्दान्वय यह विशेषण दिया गया है । कुछ लेखोमें किसी संघ या गणके बिना सिर्फ कोण्डकुन्दान्वयका उल्लेख है । ऐसे लेखोमे प्राचीनतर लेख ( क्र० १८०, २२२) ग्यारहवी - बारहवी सदीके हैं । एक प्राचीन लेख ( क्र० ५४ ) में सन् ८०८ मे कोण्डकुन्देय अन्वयके सिमलगेगूरु गणके कुमारनन्दि- एलवाचार्य - वर्धमानगुरु इस परम्पराका उल्लेख है । वर्षमानगुरुको राष्ट्रकूट राजा कम्भराजने एक ग्राम दान दिया था। इस लेखमें कोण्डकुन्देय अन्वय यह गन्द प्रयोग हैं जो स्पष्टत कोण्डकुन्दे स्थानका सूचक है । - ( आ ४ ) सूरस्थ गण प्रस्तुत संग्रहमे इम गणका पहला उल्लेख सन् ९६२ का है ( क्र० ८५ ) । इसमें प्रभाचन्द्र - कन्नेलेदेव - रविचन्द्र १. पहले सग्रहमे कोण्ढकुन्दान्वयका प्रथम उल्लेख सन् १९७ मैं ( क्र० १२२ ) बिना किसी गणके हुआ है । वहाँ सिमंलगेगूरु गणका कोई उल्लेख नहीं है । कोण्डकुन्डान्वय यह विशेषण क्वचित् द्राविड़ संघ, सेनगण आदिके लिए भी प्रयुक्त हुआ है ( तीसरा भाग प्रस्तावना पृ० ४५, ५१ )
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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