SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०१ लक्ष्मेश्वरका लेख इसका प्रारम्भ 'रणपराक्रमाङ्क' नामके एक चालुक्य राजा और उसके पुन एरेय्यके उल्लेखसे हुआ है । लेकिन ये दोनो नाम पश्चिमी या पूर्वी चालुक्योमेसे किसीकी भी वशावलीमे अभीतक नहीं मिले हैं । रणपराक्रमात शायद 'रणराग'के लिये उल्लेखित हुआ है, जो जयसिंह प्रथमका पुन और पुलिकेशी प्रथमका पिता था । जयसिह प्रथमका जो दक्षिणके इस वंशके प्रथम पुल्प हैं, वर्णन कमी कभी आता है। इसके अनन्तर 'सत्याश्रय' नामके एक राजाका उल्लेख आता है। परन्तु उससे यह पता नहीं चलता कि इस उपाधि (सत्याश्रय) को धारण करनेवाले किस पश्चिमी चालुक्य राजासे मतलब है। __इसके बाद, सत्याश्रयके समकालवीके तौरपर, 'दुर्गशक्ति' राजाका उल्लेख नाता है । यह राजा 'भुजगेन्द्र' अर्थात् नागवशके अन्दयले सम्बन्ध रखनेवाले सेन्द्र राजाओके वशका था। यह विजयशक्तिके पुत्र कुन्दशक्तिका पुत्र था। _इसमें दुर्गशक्तिके द्वारा शङ्खजिनेन्द्र नामके चैत्यके लिये दिये गये भूमिदानका कथन है। यह भूमिदान पुलिगेरे नगरमें किया गया था। लेखका काल नहीं दिया गया है । यह संभवत प्राचीनतर कालका मालूम पड़ता है, जो यहाँ सिर्फ पूर्वकालके लेखके निश्चय या सुरक्षाके लिये ही दुहराया गया है ।] [इ० ए०, जिल्द ७, पृ० १०१-१११, न० ३८ (पक्तियाँ ५१-६१)] [यह लेख श्रवण-चेल्गोलाका संस्कृत और कन्नडमे है । इसे 'जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग' में देखना चाहिये।] [L. Rice, EO, II, sr -Bel ins no 24 ] लक्ष्मेश्वर-संस्कृत। [शक ६०८ ई० सन् ६८७ ] [यह लेख (मूल) इलियटके हस्तलिखितसग्रहकी पहली जिल्दमें पृष्ठ २२ पर दिये गये ८७ पक्तिवाले एक लेखका चौथा भाग है और पंक्ति ६९
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy