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________________ ६२ जन-शिलालेख संग्रह ( दो हमेगाके श्लोक ) महाराज -मुखाज्ञात्या मारिषेण त्वङ्कारेण लिखितेय ताम्र-पट्टिका [ EC, X, Malur tl, n° 72. ] अनुवाद - कोङ्गणिव धर्म महाधिराज जाह्नवी (या गंग)कुलके निर्मल आकाश मे चमकनेवाले सूर्य थे; वे काण्वायनसगोत्र के थे । इनके पुत्र Hraaafधर्ममहाधिराज थे, जो एक 'दत्तकसूत्रवृत्ति' के प्रणेता थे । इनके पुत्र हरिवर्मा - महाधिराज थे । इनके पुत्र विष्णुगोप- महाधिराज थे । इनके पुत्र माधववर्म-धर्म महाधिराज थे, जो कलियुगकी कीचड़ में फसे हुए धर्मरूपी बैलको निकालने से हमेशा सन्नद्ध रहते थे I इनके पुत्र कोङ्गणिवर्म-धर्म- महाधिराजने जो कि कलियुगी युधिष्ठिर कहलाते थे, अपने कल्याणकेलिये, अपने बढ़ते हुए राज्यके प्रथम वर्ष फागुन सुदी पञ्चमीको, अपने उपाध्याय परमाईत ( भक्तजैन ) विजयकीर्तिकी सम्मतिसे, मूलसंघके चन्द्रनन्दि इत्यादिके द्वारा प्रतिष्ठापित उरनूर के जैन मन्दिरको कोरिकुन्द - देशसेका वेन्नेल्करनि गाँव दिया था, और पेरूर एवानि अडिगल्के जिनमन्दिरमै बाहरकी चुझीके कार्षापण ( या धन ) का चतुर्थ भाग दिया था । हमेशा शापात्मक ( imprecatory ) श्लोक | महाराज अपने मुँहसे जैसा बोलते जाते थे, मारिषेण स्वट्टकार वैसा ही इन ताम्र-पट्टिकाओपर खोदता जाता था । १ ८० रत्तीके तौलके ताम्बेके सिके, जो प्राचीनतम देशी मुद्राके थे । ( डा० वूल्हरकी Grundress में रैपसनका ' Indian Coins' नामका लेख देखो 1 )
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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