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________________ मथुराके लेख अनुवाद-महाराज • एक के २९ वें वर्षकी शीतऋतुके. दूसरे महीनेके तीसवें दिन, एक विवाहिता बोधिनदि (बोधिनन्दि') की आज्ञासे भगवान वर्धमानकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की गई । बोधिनदि ग्रहहथि (ग्रहहसी) की प्यारी लडकी थी। यह प्रतिष्ठा ग्रहप्रकिव (2) की प्रेरणासे हुई । यह ग्रहप्रकिव आर्य दत्तके जो वारण गण और पुश्यमित्रीय (पुष्यमित्रीय) कुलके थे, गिष्य थे। [El, I, n' XLIII, n° 6] मथुरा-प्राकृत-भग्न । [संभवत' हुविष्क वर्ष २९] अ. १. एकुनती [ग] व. १. अ [२] [ह] तो स. १..... २. वा-- २. [ह, रबल २ प्रतिस-- द १. स्थ म-र- स्य देव [H] त्रस्य ह क्षस्य २. [वा ] मि [क] नगदतत्य शिघो मि [ग क] तेस-- [इस खण्ड-लेखका ठीक ठीक अनुवाद नहीं दिया जा सकता । इतना निश्चित है कि द. १. २ पक्तियाँ हमे महाराज देवपुत्र हुक्ष (हुक या हुविष्क) और एक भिक्षु नगदत्त (नागदत्त) का नाम बताती है । यह भी हो सकता है कि यह लेख द. 1 से शुरू हुमा हो, क्योकि उस पंक्तिमे 'स्ध', 'सिद्ध' का स्थानीय मालूम पड़ता है, तथा उसमे राजाका भी नाम है । इसकी धारा अ. १ हो सकती है । २९ वा वर्ष हुविष्कके राज्यमें आयेगा। [EL, II, n° XIV, n° 26] मथुरा-संस्कृत-भग्न । [काल लुप्त-संभवत. हुविष्कका २९ वा वर्ष] · .... [व] पुत्रस्य हविष्कस्य स ....१ १ 'देवपुत्रस्य' और 'सवत्सरे' पटो।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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