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________________ ३५६ जैन-शिलालेख संग्रह रढोळोड्डि समाधियि । रिददरनुपम-पार्श्वसेन-मुनिपर दिवमम् ।। [स्वस्ति । श्री-मूलसंघ और पुस्तक-गच्छमें प्रसिद्ध .... भट्टारकके शिष्य लक्ष्मीसेन-भट्टारक-देवने बहुत समयतक तप किया। (उक्त मितिको), सूर्योदयके समय लक्ष्मीसेन मुनिने अमरपद प्राप्त किया। पार्श्वसेन-भट्टारककी प्रशंसा, जिन्होंने उसी वर्षमें, समाधि-विधिके द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया। [ EC, VIII, Nagar ti , n° 42 ] २३९ चिक-हनसोगे-कन्नड़-भन्न [शक १०२१-१०९९ ई.] जिन-बस्तिमें, मन्दरके दरवाजे के दक्षिणको भोरके एक पाषाणपर ] भद् भूयाजिनेन्द्राणा शासनायाधनाशिने । कुतीर्थध्वान्तसद्धातप्रभिन्नघनभानवे ।। वननिधि-परिवृत-सीमा-बनियोळ् सले नेगळ्द कोण्डकुन्दान्वयदोळ् । पनसोगे-निवासि-महा-मुनि-वरश्री-कर-[विमुक्तरागम-युक्तर ॥ यमि-नायाग्रणि पूर्णचन्द्र-मुनिपत ... "दामणदि-मुनीन्द्रर तदपत्यरन्तवर शिष्य-श्रीधराचार्यर् आयमि-शिष्यर् म्मलधारि-देवस्वर्गादर् चन्द्रकीर्त्तिवति-प्रमुखतंत्तनुजातराततयशर सिद्धान्तचक्रेश्वरर् ॥ खस्ति यम-नियम-खाध्याय-ध्यान-मौन ..."परायणरप्प श्री-मूलसङ्घद देशि-गणद पुस्तक गच्छद श्री-दिवाकरनन्दि-सिद्धान्ति देवर .. ' न्तिसववे-गन्तियर सक-वरिष सायिरद इ १०२१ नेय
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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