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________________ हुम्मचके लेख ३०९ चादिराजदेवकी प्रशंसा । कजितमेन मुनींद्रकी प्रशंसा । श्रेयांसपण्डितकी प्रशंसा। नोट.-इस शिलालेखमे समय (काल) का कोई निर्देश नहीं है और न किसी कार्य या दानका इनमे उल्लेख है । यह लेख शुद्ध प्रशंसात्मक है। LEC, TIII Xrgar,], 2° 39.] हुम्मच-मंस्कृत तथा कड़ [शफ ९९९=१०७७ ई०] (पश्चिम मुख) श्रीमत्परमगम्भीरत्याबाठामोघलाञ्छनन् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। तीसरी पत्तिम स्वालिसे लेकर १७ वीं पक्तिमें "यूडिर्प-सौभाग्यम" तक शि० ले० न. २१४ की ११ से ३१ की पंक्तिक मिलता है।) एनिसिद वीर-देवनन-तनयन् ॥] अरि-विरुद्ध-भूभुजर्कळ । विरुद्ध वेरिन्दे किर्तु वीर-श्रीयो । नरेन्टुपमातीतम् । धरेगेने भुजबळने गान्तरान्वय-तिलकम् ॥ विरुद-रिपु-नृपर शिरमम् । भरदि लेण्डाडि वीर-लब्मि यनोलिसल । नरपतिगारो धुरदोळ् । निहत निन्नन्ते नन्नि-शान्तर-नृपति ॥ उत्तर-मधुरावीश्वरम् । उत्तम गुणनुप्रयश-तितकं विवुध- ।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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