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________________ कुप्पटूरुका लेख ২৬২ प्रशसा। उन्होने सप्त कोंकणोको, लीलामानमें ही वश कर लिया था। उनकी ज्येष्ठ रानी माळल-देवी थी, उसकी प्रशंसा । उस वनवासे-नाइमें, (अनेक भाकर्षणो सहित) कुप्पटूर था, जिसके हजार ब्राह्मण अपनी विद्या और भक्ति के लिये विख्यात थे। प्रसिद्ध बन्दणिकेसे सम्बन्ध रखनेवाली चीजोंसेसे कुप्पटूरका ब्रह्म-जिनालय सबसे आगे था; इसके लिये माळल-देवीने राजा कीर्तिसे सिड्डाण, जो एडे-नाइमें सर्व सुन्दर स्थान था, प्राप्त किया था। वन्दणिके तीर्थ तथा दूसरे चैत्यालयोके मुख्य पुरोहित मण्डलाचार्य पद्मनन्दिसिद्धान्तदेवके माध्यात्मिक वंशका अवतार वर्णन:-भगवान वीरनाथ, गणधर गौतम (इन्द्रभूति )मुनि, तथा श्रुत-केवली विष्णुमुनि ये तीन ऐसे व्यक्ति थे जिन्होने जिन-मार्गका विशेष रूपसे विस्तार किया। उनके बाद कई मुनियोके गुजर जानेके वाद भद्रबाहु यति हुए । उनके बाद, जैनपरम्परामें परिपूर्णरूपसे निष्णात, चार अद्गुल ऊपर जमीनसे चलनेवाले (चारणकद्धिधारक) कुन्दकुन्दाचार्य हुए। उसी कुन्दकुन्दान्वयमें मूलसंघ, काणूर्-गण तथा तिन्त्रिणीक-गच्छके सिद्धान्ति-चक्रेश्वर पद्मनन्दि हुए, उनकी प्रशसा। उस पट्ट-महिपी माळल-देवीने कुप्पटूरके पार्श्व-देवचैत्यालयको उन पद्मनन्दिसिद्धान्त देवसे सुसंस्कृत कराके और उसका नाम वहाँके ब्राह्मणों (जिनमें साधुओ-मुनियोके गुण थे) से 'ब्रह्म जिनालय' रखवाकर कोटी श्वर-मूलस्थान तथा वहाँके सभी अन्य १८ मन्दिरोके पुरोहितोके साथ, तथा बनवासि मधुकेश्वरको भी बुलवा कर उनकी पूजा करके और उन्हे ५०० 'होन्नु' देकर, और उनसे (उक्त) भूमियाँ प्राप्त करके,इन सबको तथा कीर्ति-देवसे प्राप्त सिड्डणिवाल्लिको ( उक्त मितिको) प्राप्तकर, पद्मनन्दि सिद्धान्त-चक्रवर्तिके पाद-प्रक्षाल-पूर्वक दैनिक पूजा और ऋपियोके आहारके लिये दान कर दिया। [EC, VIII, sorab tl, n° 2627
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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