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________________ २३० जैन-शिलालेख संग्रह ' मणियूर - अप्पयणवीडिनोळ् पोन्नवाडदोळ् चाङ्किमय्यन माडिसिट श्रीमान्तिनायटेवर त्रिभुवनतिलक- चैत्यालयदलिप ऋपियरज्जियराहारढानके सर्व्वनमस्यवागि श्रीमन्त्रैलोक्य मल्लदेवर श्रीकेतलदेवियर विन्नपदि मूवत्तुगेण गळेयो विट्ट नेल मत्त [३] ३५ तोण्ट मत्त [3] १ निवेसणढगलमा गळेयोक गळे ४ गेणु १७ नीळ गळे ९ बळवेनिवेसण मूडण वेळडोळा गळेयोच्या गळे ३ नीळ गळे ७ गोपुरढ मूडण अडिगं गाण १ अल्लि वेस- गेय्व कल्कुटिगर मने १ सावगरि पोलेमने १ [I] ॐ अल्लिय सुपार्श्वदेवर बसढिगे आ गळेयो मत्तर सलिके अरुत्रणद लेक्कढे बिट्ट नेल मत्त [र] ३५५ आ गळेयो तोण्ट मत्त [३] १ गाण १ [I] ओ तम्म जिनवर्म्मय्यन माडिसिट पार्श्वदेवर बसदिगे करहड - नाल्यांसिरदोळगण कळम्बडि-३००२२ वळिय कन्नडिगेय सङ्घरसन मग मन्नेय वज्जरसन गुड्डे-मान्य ५०० मत्त - केनोजो सूत्रत्तु गेण गळेयोक्सर्व्वनमस्यमागि चाह्निमय्यं मारुगोण्डु विट्ट नेल मत्त [इ] ३५ [II] [ यह लेख पश्चिमी चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथमका, जो यहाँ अपने त्रिरुद 'त्रैलोक्यमल्लदेव' से वर्णित हुए हैं, उल्लेख करता है और उसकी रानी देवलदेवीका भी जो पोनवाड 'अग्रहार' पर शासन कर रही थी यह एक जैन शिलालेख है, इसका उद्वेग यह बताना है कि किस तरह चाङ्किराज, चाकणार्य, या चाहिमय्यने, जो कि वानस या वाणस वंशके तथा केतलदेवीके ऑफीसर थे, शान्तिनाथ, पार्श्व, और सुपार्श्वकी वेदियों को पोन्नवाढमें त्रिभुवन- तिलक नामके चैयालय में बनवाया और किस तरह उन वेदियोंके लिये कुछ जमीन और मकानात दान किये गये । ] [IA 19, p 268-275, n° 190] १ लेखमे वर्णित पोन्नवाढ, वास्तवमें, वर्तमान होन्वाढ ही है ।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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