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________________ जैन-शिलालेख संग्रह . ३ वर्द्धमानश्चतुबिंबः कारितोयं सभक्तिभिः ॥ [॥२] संवत्सर १०८० थंभकप४ प्पकाभ्या घटितः ।। ओ अनुवादः- ॐ। श्री जिलदेवसरि हुए, उसके बाद श्री भावदेव हुए। उनके शिष्य आचार्य विजयसिङ्ग ( विजयसिह ) हैं । उनके उपदेशसे नवग्राम, स्थान आदि ( शहरों ) में रहनेवाले सुश्रावकोने स्वशक्ति और खभक्तिके साथ वर्धमानकी चतुवित्र (सर्वतोभद्र) प्रतिमाका निर्माण करवाया । यह प्रतिमा १०८० [विक्रम ] सवत्में थंभक और पप्पक शिल्पियोके द्वारा बनकर तैयार हुई थी । ओं॥ [BI, II, n° XIV, n*411 १७४ तिरुमले - तामिल [१०२३ ई.] १ खस्ति श्री [1] तिरुमन्नि वळरविरु निलमडन्दैयु पोर्चयप्पावैयुञ् चीरत्तनिश्चेल्वियुन् तन् पेरुन् देवियराकि इन्पुरु नेडु तियल् ऊळियुल इडतु२ रैनाडुन्तुडर् वनवेलिप्पडर् वनवासियुञ् चुकिच्चु मदिट्कोळ्ळिप्पाकैयु नण्णर्करु मुरण मण्णकडकमु पोरु कडल् ईळत्तरशर तमुडियु आग३ वर देवियरोड्केलिन् मुडियुमुन्नवर पक्कलत्तेन्नवर वैत्त सुन्दर मुडियु इन्दिरनारमुन्तेण्डिरै ईळमण्डलमुळुवढुं एरि पडक्के १ यह लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका मालम पड़ता है।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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