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________________ २०७ २०७ अगडिका लेख इन्द्रराजने स्वर्गकी विभूति पाई-(अर्थात् मर गये)।] [EC, XII, Sıra tl., no 27 ] श्रवण वेल्गोला-संस्कृत [विना काल-निर्देशका ] [जे. शि. ले. सं , भा. १.] १६६ अगडि-संस्कृत तथा कन्नड़-भग्न [काल लुप्त, पर लगभग ९९० ई० का] [ अगडि (गोणीवीड परगना ) में, वसदिके पासके पाषाणपर ] (सामने ) .. .. ... ...."सुद पञ्चमी वृहस्पति वारदन्दु खस्ति · ·यम स्वाध्याय-ध्यान-मौनानुष्ठान-परायणरप्प द्रविळ-सघद... अट श्री-कोण्डकुन्दान्वयद त्रिकालमौनि-भट्टारक शिष्यर् श्रीमदिरिववेडेङ्ग "कन गुरुगळ् विमलचन्द्र-पण्डित-देवर् सन्यासन-विधियिं मुडिपि मुक्तियनेरिददर ।। ( पीछे ) श्रुत-विमळादिचन्द्र ... . .. .... श्रीमनु.. . .... "पण्डिताहृयसु-विमळचन्द्र-मुनिः ।। नमो विमळचन्द्राय कळाकळित-मूर्तये । सत्त्वात् सद्-बुधसेव्याय शान्तामृतमयात्मने । श्री-विमळचन्द्र-पण्डित-देवर गुड्डी हवुम्ब्वेया तङ्गे शान्तियब्वे तम्म गुरुगळ्गे परोक्ष-विनय गेय्दर ॥ [(साधु-गुणोसहित), द्रविल-संघ, कोण्डकुन्दान्वय तथा पुस्तकगच्छके त्रिकालमौनि-भट्टारकके शिष्य,-श्रीमद् ईरिव-वेडेग के गुरु, १ उसका काल और अतिमावस्थाका कथन वही है जो श्रवणबेलगोला नं० ५७ के शिलालेखमें हैं । इन्द्रराज अन्तिम राष्ट्रकूट राजा था।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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