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________________ वेलवत्तेका लेख १०७ स्वस्ति श्रीमत् जित भगवता जिनवर-वृपमेण वृषभेण पुरा कलिअवसर्पिण्या द्वावरे युगे लोक-स्थितिरक्षार्थ काडित-मनुष्य-जन्मना पुरुषोत्तमेन सूर्य-वंश-व्योम-सूर्येण महारथेन दाशरथिना राम-स्वामिना प्रतिष्ठापिताय भगवतोहत. परमेष्ठिनः सर्वज्ञस्य चैत्य-भवनाय पश्चात् पाण्डवजनन्या को(कु)न्तिदेव्या पुनर्नवीकृत-सस्काराय भूमिदेव्यास्तिलकायमानाय स्वग्र्गापवर्ग-पटयोस्सोपान-पदवीभूताय धराधर-धरणेन्द्रस्य फणा-मणि-लीलानुकारिणे धराधरवराय जिनेन्द्र-चैत्य-सान्निध्यात् पावनाय परम-तीयाय तपश्चरण-परायण-महर्पि-गणाध्यासित-कन्दराय श्रीकुन्दाख्याय (यहाँ बन्द हो जाता है) [वृपभ-देवको नमस्कार करनेके बाद, प्राचीन समयमें, कलि-अवसर्पिणीके द्वापर युगमें, सूर्यवंशके गगनमे सूर्यके समान, दशरथके पुत्र महारथ राम-स्वामी (रामचन्द्रजी)के द्वारा अर्हन्त परमेष्टीका यह चैत्य-भवन प्रतिष्ठापित किया गया । बादमें, पाण्डवोंकी माता कुन्तीने इसे फिरसे नया बनवा दिया। भूमिदेवीको तिलकके समान, स्वर्ग और अपवर्ग दोनोके लिये सीढी, सव पर्वतोसें उत्तम, जिनेन्द्र चैत्य (विम्ब )के सान्निध्यसे पवित्रीकृत, परमतीर्थ, जिसमें जगह जगह तपश्चरण-परायण महर्पिगणोंके लिये कन्दराएँ (गुफायें) बनी हुई हैं, ऐसा 'श्रीकुन्द' नाम पर्वत (यहाँ लेख खतम हो जाता है।) [EC, X, Chik-ballapur t1, no 29 ] वेलवत्ते-कन्नड़। विना काल-निर्देशका (संभवत लगभग ७५० ई०) [वेलबत्ते-मैसूर तालुकेमें, बसवेश्वर मन्दिरके पश्चिमकी ओर] ने!यदि एर्दनु मुने......"कलियु प्रभिन्न-वाग्वि विल्लोरु गुर्रि ... १ प्रारम्भके गन्द 'स्वस्ति' को यहां अन्तमे लगा देनेसे यह लेस सभाव्यरुपसे पूर्ण समझा जा सकता है, क्योंकि 'स्वस्ति'के योगमे चतुर्थी विभक्ति होती है,जो यहाँ है।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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