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________________ जैन साहित्य संशोधक [ भाग शास्त्रीन भी उनकी इस बातको पास कर दिया है- है। और इसलिये प्रायः उन सबकी जाँच अनेक मागा अर्थात्, पुस्तकपर अपने द्वारा संशोधन किये जा- और अनेक पहलुओंसे होनी चाहिये । हरएक नेकी मुहर लगाकर इस बातकी रजिस्टरी कर दी वातकी असलियतको खोज निकालनेके लिये गहरे है कि उक्त वाक्य गंधहास्तमहाभाष्यका ही वाक्य अनुसंधानकी जरूरत है। तभी कुछ यथार्थ निर्णय है। परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है। यह वाक्य हो सकता है। राजवार्तिक भाष्यका वाक्य है। राजवार्तिक १५-ऊपर श्रुतावतारके आधारपर यह प्रकट 'अवग्रहावायधारणा' इस सूत्रपर जो १० वाँ किया गया है कि समन्तभद्रने 'कर्मप्रामृत' सिवार्तिक दिया है उसीके भाष्यका यह एक वाक्य द्धान्तपर ४८ हजार श्लोक परिमाण एक सुन्दर है । इस वाक्यसे पहले जो वाक्य, 'यद्राजवा- संस्कृत टीका लिखी थी। यह टीका 'चूडामणि' र्तिकं शब्दोंके साथ. न्यायदीपिकाकी ऊपरकी नामकी एक कनडी टीकाके वाद, प्रायः उसे देखपंक्तियों में उद्धृत पाया जाता है वह उक्त सूत्रका कर लिखी गई है। चूडामाणिकी श्लोकसंख्याका ९ वाँ वार्तिक है। दूसरे शब्दों में यों समझना चा- परिमाण ८३ हजार दिया है और वह उस कर्महिये कि ग्रन्थकर्ताने पहले राजवार्तिक भाष्यका प्राभृत तथा साथ ही,कपायाभूत नामक दोनों एक वार्तिक और फिर एक वार्तिकका भाष्यांश सिद्धान्तों पर लिखी गई थी। भट्टाकलंकदेवने, उद्धृत किया है, जिसको हमारे दोनों पंडित अपने कर्नाटक शब्दानुशासनमें इस चूडामाणमहाशयोने नहीं समझा और न समझनेकी कोशिश टीकाको 'तत्त्वार्थ महाशास्त्रकी व्याख्या' (तत्त्वा-' की । उनके सामने मूल ग्रन्थम 'गन्धहस्ति महा- चमहाशास्त्रव्याख्यानस्य*' चूडामण्यभिधानस्य भाष्य ' ऐसा कोई नाम नहीं था और यह हम महाशास्त्रस्य...उपलभ्यमानत्वात् ।) लिखा है, बखूबी जानते है कि उन्होंने गन्धहस्ति महाभाष्य. जिसका आशय यह होता है कि कर्मप्राभूतादि का कभी दर्शन तक नहीं किया, जो उस परसे ग्रन्थ भी तत्त्वार्थशास्त्र' कहलाते हैं और इसलिये जाँच करक ही ऐसे अथेका किया जाना किसी कमेप्राभृतपर लिखी हुईसमन्तभद्रकी उक्ते टीकाप्रकारसे संभव समझ लिया जाता, तो भी उन्होंने भी तत्वार्थमहाशास्त्रकी टीका कहलाती होगी। 'भाष्य ' का अर्थ 'गन्धहस्ति महाभाष्य ' करके चूँकि उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र भी 'तत्त्वार्थशास्त्र' एक विद्वानके वाक्यको दूसरे विद्वानका बतला अथवा तत्त्वार्थमहाशास्त्र' कहलाता है, इसलिये दिया । यह प्रचलित प्रवादकी धुन नहीं तो और सम्भव है कि इस नामसाम्यकी वजहसे 'कर्मक्या है ? इसी तरह एक दूसरी जगह भी तनाण्यं प्राभत' के टीकाकार श्रीसमन्तभद्रर पदका अर्थ-"ऐसा ही गन्धहास्त महाभाष्यमें समय उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार समझ भी कहा है-' किया गया है। इस उदाहरणसे लिये गये हो और इसी गलतीके कारण पीछेसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि प्रचलित प्रवादको अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ उत्पन्न होकर उनका केतना अर्थका अनथे हो जाया करना है वर्तमानरूप बनगया हो । यह भी सम्भव है, कि और उसके द्वारा उत्तरोत्तर संसारमें कितना भ्रम प्रबल और प्रखर तार्किक विद्वान होनेके कारण तथा मिथ्याभाव फैल जाना संभव है। शास्त्रों में 'गन्धहस्ति' यह समन्तभद्रका उपनाम अथवा प्रचलित प्रवादोसे अभिभूत ऐसे ही कुछ महाश- विरुद रहा हो और इसके कारण ही उनकी उक्त योंकी कृपाले अथवा अनेक दन्तकथाओंके किसी सिद्धांतटीकाका नाम गन्धहस्तिमहाभाष्य प्रसिद्ध न किसी रूपमें लिपिबद्ध हो जानेके कारण ही बहुतसे ऐतिहासिक तत्त्व आजकलचक्करमे पड़े हुए . * यहाँ ग्रन्थका परिमाण ९६ हजार लोक दिया है जि - सकी बावत राइस साहबने, अपनी 'इंस्क्रिपन्स एट थवण___* देखो राजवार्तिक, सनातनग्रन्थमाला कलकत्तका बेलगोल ' न मक पुस्तकमे, लिखा है कि इसमें ११ छपा हुआ। हजार लोक ग्रन्थके संक्षिप्तसार अथवा सूचीके शामिल हैं।
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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