SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंक २] यहस्तिमहाभाग्यकी खोज we wwwmarware .... . . मांसाका एक पद्य निम्न प्रकारसे उद्धृत किया गया है । वहाँ ऊपरके सदृश महाभाप्यादि शब्दों हुआ मिलता है: का प्रयोग भी नहीं है, बल्कि बहुत सीधे सादे शब्दोंमें " तदुक्तं स्वामिभिर्महाभाप्यस्यादावाप्तमीमांसापरतावे सूक्ष्मा- 'तदुक्तमाप्तमीमांसायां स्वामिसमंतभद्राचार्य: ऐसा न्तरितदूर र्था.........." कहा गया है। धर्मभूषणजीके समयसे अवतक ऐसा __ इससे मालूम होता है कि स्वामी समन्तभद्र- कोई महान् विप्लव भी उपस्थित नहीं हुआ कि प्रणीत 'महाभाष्य' की आदिमें आप्तमीमांसा ना- जिससे गंधहस्ति महाभाष्य जैसे ग्रंथका एकदम मका एक प्रस्ताव है। और सिर्फ यही एक उल्लेख लोप होना मान लिया जाय । और याद ऐसा मान है जो अभी तक हमें इस विषयमें प्राप्त हो सका भी लिया जाय तो उनसे पहले प्राचीन साहित्यमें है और जिससे प्रचलित प्रवादको कुछ आश्वासन उसके उल्लेख न होनेका कारण क्या है, इसका मिलता है । यद्यपि इस उल्लेखमें 'गंधहस्ति महा- संतोपजनक उत्तर कुछ भी मालूम नहीं होता। भाष्य ' ऐसा स्पष्ट नाम नहीं है, न इस ‘महा- और इस लिये हमारी रायमै धर्मभूपणजीका उपभाष्य ' को उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका भाष्य युक्त उल्लेख प्रचलित प्रवादपर ही अवलम्बित है । . प्रकट किया है, न यह ही सूचित किया है कि उस- प्रचलित प्रवादपर अक्सर उल्लेख हुआ करते हैं की ग्रं संख्या ८४ हजार श्लोक परिमाण है और और वे वहुतसे ग्रंथों में पाये जाते हैं । आजकल इसलिये संभव है कि यह महाभाग्य समन्तभद्रका भी, जव कि गंधहस्तिमहाभाष्यका कहीं पता नहीं उपर्युल्लिखित, ४८ हजार श्लोक संख्याको लिये हुए, और यह भी निश्चय नहीं कि किसी समय उसका 'कर्मप्राभृत' सिद्धान्तवाला भाष्य हो अथवा कोई अस्तित्व था भी या कि नहीं, बहुतसे अच्छे अच्छे दूसरा ही भाष्य हो । और उसमें आचार्य महो- विद्वान् अपने लेखों तथा ग्रंथोंमें गंधहस्ति महादयने आवश्यकतानुसार, अपने आप्तमीमांसा ग्रं. भाव्यका उल्लेख परिचित अथवा निश्चित ग्रंथके तौर थको भी बतौर एक प्रस्तावके शामिल कर दिया पर करते हैं, उसे तत्त्वार्थसूत्रकी टीका बतलाते हैं हो, तो भी धर्मभूषणके इस उल्लेखसे प्रकृत गंध. और उसके श्लोकोंकी संख्याका परिमाण तक देते हास्त महाभाष्यका आशय जरूर निकाला जा स. हैं । यह सब प्रचलित प्रवादका ही नतीजा है। कता है। परंतु जब हम इस उल्लेखको ऊपर दिये कभी कभी इस प्रचलित प्रचादकी धुनमै अर्थका हुए संपूर्ण अनुसंधानोंकी रोशनीमें पढते हैं और अनर्थ भी हो जाता है, जिसका एक उदाहरण हम साथ ही, इस बातको ध्यानमें रखते हैं कि अपने पाठकोंके सामने नीचे रखते हैंधर्मभूपणजी विक्रमकी १५ वीं शताब्दीके उक्त न्यायदीपिकामें एक स्थानपर ये वाक्य विद्वान् हैं, तो ऐसा मालूम होता है कि दिये हैं:यह · उल्लेख उस वक्तके प्रचलित प्रवाद, तद्विपरीतलक्षणो हि संशयः । यद्राजवार्तिकम् " अनेका-- लोकोक्ति अथवा दंतकथाओंके आधर पर ही निश्चितापर्यंदासात्मकः संशयः, तद्विपरितोऽवग्रहः" किया गया है । वास्तविक तथ्यसे इसका प्रायः इति । भाण्यं च " संशयो हि निर्णयविरोधी नत्वग्रहः' कोई सम्बन्ध नहीं। और न यह मानने अथवा इति । कहनेका कोई कारण है कि धर्मभूषणजीने पं. खूबचन्दजीने न्यायदीपिकापर लिखी हुई गंधहस्तिमहाभाग्यको स्वयं देखकर , ही ऐसा अपनी भापाटीकामे, इन वाक्योंका अनुवाद देते उल्लेख किया है। यदि ऐसा होता तो खास गंधह- हुए, 'भाष्य' शब्दले 'गन्धहस्तिमहाभाष्य' का स्तिमहाभाष्यका भी कोई महत्त्वपूर्ण उल्लेख राजवा- अर्थ मूचित किया है अर्थात्, सर्वसाधारण पर यह र्तिकादि ग्रंथोंके स्थानाम अथवा उनके साथ जरूर प्रकट किया है कि संशयो हि निर्णयविरोधी नत्व पाया जाता । परंतु ऐसा नहीं है, न्यायदीविकामें वग्रहः' यह वाक्य गन्धहस्तिमहाभाष्यका एक वा दूसरी जगह भी आप्तसीमांसाका ही उल्लेख किया क्य है । टीकाके 'संशोधनकर्ता' पं० वंशीधरजी
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy