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________________ ७८ [भाग 1 amunmun m. wwwsa n am जैन साहित्य संशोधक अमोघ वर्षके समयमें उसीके नामसे बनाई गई । लिङ्गस्य लक्ष्म ही समस्य विशेपयुक. है। इससे यह सिद्ध होता है कि शाकटायन व्या- मुकं मया परिमित त्रिदशा इहार्याः ॥३१॥ करण-(खून) अमोघवर्षके लमयमै अथवा उससे इससे भी सिद्ध होता है कि पि० स० ८५० कुछ पहले पनाया गया होगा। अमोघवर्षने शक लगभग जैनेन्द्र प्रख्यात व्याकरणों में गिना जाता संवत् ७३७ से ८०० तक (वि० सं०८७२ से १३५ था। अतएव यह इस समयसे भी पहलेका वनां तक) राज्य किया है। अतः यदि हम शाकटायन हुआ होना चाहिए। सूत्रोंके धननेका समय वि० सं० ८५० के लगभग ३) हरिवंशपुराण शक संवत् ७०५ (वि० सं० मान लें. तो वह वास्तविकता के निकट ही रहेगा। ८४०)-का बना हुआ है। इस समय यह सम शाकटायन व्याकरणको बारीकीके साथ देखना हुआ है । उस समय दक्षिणमें राष्ट्रकूट राजा कृष्णं से मालूम होता है कि वह जैनेन्द्रसे पीछे बना (शुभतुंग या साहसतुंग) का पुत्र श्रीवल्लभ (गोवि. हुआ है। क्यों कि उसके अनेक सूत्र जैनेन्द्रका म्दराज द्वितीय) राज्य करता था। इस राजाने शक अनुकरण करके रचे गये हैं । उदाहरणके लिए ६९७ ते ७०५ नका वि०८३२ से ८४०] तक राज्य जनेन्द्र के " वस्तेढ " (४-२-१५४), " शिलाया- किया है। इस हरिवंशपुराणमें पूज्यपाद या देवनतुः, (४-१-१५५ ) "ढच" .८.४१-२०९) आदि न्दिकी प्रशंसा इस प्रकार की गई है । सूत्रोंको शाकटायनने थोडा बहुत फेरफार करके गाईवचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापि (डिव्याकरणक्षिणः । अथवा ज्यों का त्यो ले लिया है। अनेन्द्रका एक सूत्र देवस्य देववन्यस्य न वदते गिरः कथम् ॥ ३॥ है- हिंदौदिः " (१-१.५१) शाकटायनने इसे यह यात निस्सन्देह होकर कही जा सकती है कि ज्यो का त्यों रख कर अपना पहले अध्याय, पहले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता देवनन्दि वि० सं ८०० से पादका ५२ वां सूत्र बना लिया है। इस सूत्रको भी पहलेके हैं। लक्ष्य करके भट्टाकलंकदेय अपने राजवार्तिकं (१- ४) उपर बतलाया चुका है कि तत्वार्थराज. ५-१, पृष्ठ ३७ ) में लिखते हैं- "क्वचिदवयवे टि- वार्तिको जैनेन्द्र व्याकरणके एक सूत्रका हवाला शादिरिति ।" और भट्टाकलंकदेव शाकटायन तथा दिया गया है । इसी तरह "सर्वादिः सर्वनाम" अमोघवर्षसे पहले राष्ट्रकूट राजा साहसतुंगके [१.१-३५] सूत्र भी जैनेन्द्रका है, और उसका समयमें हुए हैं, अत एव यह निश्चय है कि अक- उल्लेख राजवार्तिक अध्याय सूत्र ११ की व्याख्याने लंकदेवने जो 'टिदादि ' सूत्रका प्रमाण दिया है, किया गया है। इससे सिद्ध है कि जैनेन्द्र ब्याकरण वह जैनेन्द्र के सूत्रकोही लक्ष्य करफे दिया है, शाक- राजवार्तिकसे पहलेका बना हुआ है। राजार्तिकटायनके सूत्रको लक्ष्य करके नहीं । इससे यह के कर्मा अकलंकदेव राष्टकट राजा साहसतुंगसिद्ध हुआ कि शाकटायन जैनेन्द्रले पछिका बना जिसका दूसरा नाम शुभतुंग और कृष्ण भी हैहुआ है । अर्थात् जैनेन्द्र वि० सं० ८५० से भी पहले की सभा गये थे, इसका उल्लेख श्रवणबेलगोलकी बन चुका था। मलिषणप्रशस्तिमें किया गया है। और साहसतुंग. २) वामनप्पणीत लिङ्गानुशासन नामका एक ने शक संवत् ६७५ से ६९७ [वि० सं० ८१० से अन्य अभी हाल ही गायकवाड ओरियंटल सौरी- ८३२] तक राज्य किया है। यदि राजवार्तिकको जमें प्रकाशित हुआ है। इसका कर्ता पं० वामन हम इस राजाके ही समयका बना हुआ मान, रापट राजा जगतुंग या गोविन्द तृतीयके समय- तो भी जैनेन्द्र वि. स.८०० से पहलेका बना हुआ में हुआ है और इस राजाने शक ७१६ ते ७३६ सिद्ध होता है। (वि०८५१-८७१) तक राज्य किया है ! यह ग्रन्थ कार्ता नीचे लिखे पद्यमें जनेन्द्रका उल्लेख करता है. १ देव देवन्दिका ही संक्षिप्त नाम है । शब्दार्णवन्दि ध्याडिप्रणतिमय वारस्व सचान्द्र कामें 1-४-११४ सूत्रकी व्याख्यायें लिया है-"देवोपबैनेन्द्ररक्षणगतं विवि तमान्यत् । इत्यनेकशेपन्याकरणम् ।"
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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