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________________ प्रस्तावना. जैनमेघदूत. माणस अनेक जन्मोना संस्कारोथी, पोताना आजुबाजुना सहवासथी अनायासे शंगाररसमा विशेष आनंद पामे छे. कविओ पण समाजना चारित्रनो विचार कर्या सिवाय या पोते पण पूर्वभूत संस्कारोथी दबायेला होवाथी समाजना इष्टानिष्टनो विचार कर्या सिवाय, पोतानी कृति टुंक समयमा सर्वत्र विशेष आदर पामे, ए मुख्य लक्ष्य राखी काव्यसृष्टिमां विहर्या छे. श्रीमान् हेमचंद्राचार्य काव्यानुशासनमां रसनुं वर्णन करतां शृंगाररसनुं वर्णन पहेलां केम कर्यु तेनुं समाधान करतां जणावे छे के "तत्र कामस्य सकलजातिसुलभतयाऽत्यन्तपरिचितत्वेन सर्वान्प्रति हृद्यतेति पूर्व शृंगारः" आचार्यश्रीए आ थोडा शब्दोमां माणसना हृदयनुं प्रतिबिंब रजु करेलु छे. श्रृंगाररसना कार्यप्रदेशनी मर्यादा परस्पर स्त्रीपुरुषमां अवसान पामे छे. तेमने हमेशां पोताना ज सुखनी लागेली होय छे. तेओ अन्यना सुखदुःखनी चिंता धरता नथी. छेवटे तो श्रृंगाररस, पर्यवसान दुःखमां ज आवे छे, या जो ते विकास पामे तो शान्तरसनुं रूप धारण करे छे. आथी कविओए जो श्रृंगाररसथी आगळ वधी शान्तरसनी सृष्टि रची होत तो समाज विशाळ भावनावाळो थइ शक्यो होत. रसनी जमावट एवी न होवी जोइए के मनुष्य पोतानी "वसुधैव कुटुम्बकम्" वाळी भावनाने नेवे मूके. जो शृंगाररसथी तृष्णा विशेष बळवान बने तो ते शृंगारिक साहित्यथी माणस आदर्शजीवी केवी रीते बनी शके. श्रृंगारिक साहित्यथी मनुष्यने बदलामां शुं मळे छ ?. प्रियपात्रनी झंखनामां शरीर घसाइ जाय छे, कुटुंब, समाज के देशनी फरजो भूली जाय छे. सारासारनो विचार थइ शकतो नथी. वळी तेवू साहित्य सामान्य जनसमूहमां फेलावाथी अनेक दुर्गुणोने आश्रय मळे छे. आथी उलटुं विचारीएशान्तरसनुं साहित्य माणसने शुं लाभ आपे छ ? अनुचित तृष्णानो नाश करे छे. मनुष्यधर्मनुं भान करावे छे. तृष्णाओ क्षय पामतां तेनी मर्यादा विशाळ रूप धारण करे छे. तेनी भावना "सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु" होय छे. ते साहित्य जगतमा विश्वप्रेमनी भावना प्रसारे छे. प्रजाकीय साहित्यनी भाशा राखनारने तो शृंगारथी दूर रहे, पडशे. २० मे.
SR No.010002
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorShilratnasuri, Chaturvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1924
Total Pages205
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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