SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 472 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी यहाँ कह रहे हैं कि संयम को प्राप्त कर लेना बहुत प्रबल पुण्य योग से होता है, परन्तु संयम को प्राप्त करने के उपरांत निर्दोष-भाव बनाकर चलना, यह उससे भी कठिन होता हैं जीवन में व्रत तो दस मिनट में हो जाता है, पर व्रत का पालन जीवन- पर्यन्त के लिए किया जाता हैं व्रत स्वीकार करके तुम्हारे भाव बिगड़ गये, तो आप कहीं के नहीं रहोगें मन के अतिचार का प्रायश्चित कर लोगे, मन के दोषों का प्रायश्चित कर लोगे, लेकिन तन से पाप कर बैठे, तो वहाँ तो आपको पुनः व्रत ही लेना पड़ेगां 'आचार्य भगवन्' कह रहे हैं कि एक देशव्रत का भंग होना अतिचार कहलाता है और सर्वदेश व्रत का भंग हो जाना अनाचार कहलाता है क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रम, व्यतिक्रमं शीलव्रतेर्विलंघनम् प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं, वदन्त्यनाचारमिहातिसक्ताम् 9- सा.पाठं व्रतभंग के अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार यह चार भेद कियें किसी व्यक्ति ने रात्रिभोजन का त्याग किया है और रात्रि में क्षुधा सता रही है तो क्षुधा सताना दोष नहीं है, अतिक्रम हैं भोज्य सामग्री की खोज करना अथवा व्रत का किंचित उल्लंघन होना, व्यतिक्रम हैं पीड़ा का होना कोई कर्म-बंध का हेतु नहीं है, वेदना के विकार में चले जाना या वेदना को नष्ट करने का उपाय सोचना, इसमें बंध हैं क्षुधा की वेदना है और वह वेदनीय-कर्म की उदीरणा से आती हैं एक व्यक्ति प्रसन्न होकर भोजन कर रहा है, लेकिन ऐसा कौन-सा रोगी होगा जो औषधि को प्रसन्न होकर खा रहा होगां एक मुमुक्षुजीव भोजन करते-करते कर्म-निर्जरा कर रहा हैं देखना, कि साधक की प्रत्येक चर्या कर्म-निर्जरा का हेतु क्यों बन रही है? आहार को गये परन्तु, चिन्तवन क्या चल रहा है, कि भगवन् एक घंटा मेरा बर्बाद हो रहा हैं एक घंटा मेरा यहाँ पौद्गलिक टुकड़ों को खाने में लगा हैं हे नाथ! वह दिन कब आये जब क्षुधा वेदनीय कर्म का समापन हो जायें मेरा यह एक घंटा स्वतन्त्र हो जायें एक क्षण के पीछे कितना विकल्प, कितनी सोच, कितना चिन्तवन, और कितनी स्वतन्त्र दशा होगी? सप्तम गुणस्थान में शुद्ध-उपयोग इसलिए होता है, क्योंकि वहाँ भोजन का विकल्प ही नहीं होता है और सबसे अशुद्ध विकल्प उत्पन्न कराने वाली आहार-संज्ञा हैं रोगों की पीड़ा को दूर करने के लिए औषधि खाने में खुश होना-ये तुम्हारी विज्ञता नहीं है, अज्ञता हैं जीवन में ध्यान रखना, भोगों को मस्ती में मत भोगनां जो आत्मा के स्वरूप की शुद्धि का घात करे, उसका नाम अशुद्धि है और अशुद्धि का नाम अतिचार हैं व्यक्ति सोचता है कि मैं निर्दोष संयम का पालन करूँ, परंतु अंदर की कमजोरी आपको दोष लगाती हैं आपने उदयगिरि की वन्दना का विचार किया, और विचार यह करके आये थे कि मैं पैदल चलूँगा, नंगे पैर चलूँगां यदि यह दृढ़ता रखते, तो आप पहुँच भी जातें लेकिन बीच में यह विचार आ Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy