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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 414 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 मुझे एक पत्ते में भी वही सिद्ध भगवान् नजर आते हैं विश्वास रखना, चाहे आप मुनिराज बन जाना अथवा श्रावक बन जाना, यदि दृष्टि में साम्यता/निर्मलता नहीं लाओगे तो ये वेष भी तुम्हें मोक्ष नहीं दे पायेंगें भो ज्ञानी! द्रव्य चढ़ाने का मतलब लोभ कषाय का त्याग हैं हमारे यहाँ तो भगवान खाते नहीं हैं, प्रसाद भी नहीं बँटतां लेकिन लोभ को समाप्त करने के लिए उत्कृष्ट द्रव्य को चढ़ाया जाता है और वह ही तुम बन्द करोगे क्या? दान देना, पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है और यदि श्रावक नहीं करता है तो, भो ज्ञानी! तू श्रावक कहलाने का पात्र ही नहीं हैं ध्यान करना, अध्ययन करना मुनि का मुख्य धर्म हैं यदि ध्यान व अध्ययन मुनि नहीं करते तो वे मुनि कहलाने के पात्र नहीं हैं-ऐसा कुंदकुंद आचार्य महाराज ने "रयणसार" जी ग्रंथ में कहा हैं हमारे आचार्यों ने किसी को नहीं छोड़ा है, दोनों को समझाया हैं लेकिन दिक्कत यह है कि हम दूसरों को तो समझाते हैं परन्तु खुद नहीं समझतें भो ज्ञानी! मोक्ष जाने के लिए कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है, वह तो शुद्ध उपयोग की दशा हैं सामान्यरूप से प्रत्येक सम्यकदृष्टि मुमुक्षु हैं जिस दिन सम्यक्त्व होता है, उसी दिन मोक्ष की दृष्टि होती है; पर संयम की अपेक्षा 'मुमुक्षु'-संज्ञा निग्रंथ योगी को ही हैं आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी और आचार्य पद्मप्रभमलधारि देव कह रहे हैं कि चैतन्य चमत्कार का उद्भव तभी होगा, जब अन्तरंग से विषय वासना की गाँठ हट जायेगी यदि वह नहीं हट रही, तो दुनियाँ के पुण्य-कर्म किसी रूप में कर लेना, लेकिन होंगे बंध के हेतु ही; छुड़ा नहीं पायेंगें आचार्य अमतृचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि जो व्यक्ति दान नहीं देता, पूजा नहीं करता, उपवास नहीं करता, वह महाहिंसक हैं दान लोभ-कषाय के शमन के लिए दिया जा रहा हैं पूजन की जाती है मिथ्यात्व एवं अशुभ भावों के शमन के लिए भो ज्ञानी! परद्रव्य के प्राणों का घात करना द्रव्यहिंसा है, पर जो राग से युक्त है कषाय से युक्त हैं, वह अपनी आत्मा का अपनी आत्मा के द्वारा घात कर रहा है, यह कषाय ही आत्म-घात हैं अहो! निज भावों का घात कर रहा है, इस कारण अमृतचन्द्र स्वामी ने लोभी को भी हिंसक कहा है, क्योंकि तूने पर-द्रव्य का राग छोड़ा, सोलह प्रहर तक तूने भोजन-सम्बंधी जो आरंभ-समारंभ उसका त्याग किया और जो तेरी गृद्धता थी उसका भी शमन किया, यह सब तूने पापों का त्याग करके व्रत का पालन किया हैं इसलिए, उपवास करना अहिंसा है और उपवास नहीं करना हिंसा हैं भो ज्ञानी! बिना राग के तुम भोजन कर कैसे रहे हो? यह मायाचारी मत कर देना कि पुद्गल ने पुद्गल को खायां भो मुमुक्षु आत्माओ! मेरी राग दृष्टि ने पुद्गल को चबाया है, यानि पाप भी कर रहा है और साथ में मायाचारी भी कर रहा हैं विधि से उपवास की विधि को समझो, एक दिन पहले के मध्याह्न भोजन के बाद आपको उपवास धारण कर लेना चाहिए, वह धारणा कहलाती है और इस आधा दिन पहले आपको पाँच पापों का त्याग कर देना चाहिए फिर जिस दिन उपवास करेंगे, उस दिन धर्म ध्यान में समय निकलेंगें यहाँ द्वितीय दिवस, द्वितीय रात्रि (यानि जिस दिन उपवास कर रहे हैं उसकी बात कर रहे हैं) प्रयत्नपूर्वक किसी Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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