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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 413 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 होगी, नियम से नरक जायेगां छठवें काल का जीव नियम से दुर्गति का पात्र होगां आचार्य पद्मप्रभमलधारि देव "नियमसार" जी में कह रहे हैं, यदि अपने परिणामों को नहीं समहाल पाये, अपनी आस्था का दीप नहीं जला पाये तो, भो चैतन्य आत्मा! अब बुझे दीप तेरे जलने वाले नहीं; यानि इन साढ़े अठारह हजार सालों में इस भरत क्षेत्र में तुम्हारे आस्था का दीप नहीं जल पाया, तो अब कहाँ जाओगे ? मनीषियो! निज चेतन पर करुणा करो, निज प्रभु पर करुणा करों जहाँ आस्था तुम्हारी जन्म ले लेती है, वहाँ पाषाण में परमात्मा झलकना प्रारंभ हो जाता हैं उस भील को देखना, जिसे मिट्टी में गुरु दिख गया, क्योंकि उसकी दृष्टि में गुरु उसकी श्रद्धा में बैठा थां अरे! श्रद्धा में गुरु नहीं है, तो तीर्थंकर आदिनाथ के समवसरण में पहुँचकर भी महामुनि तीर्थकर भगवान् नजर नहीं आये, क्योंकि उसकी दृष्टि में मिथ्यात्व छाया थां अहो! वह कोई दूसरा नहीं था, नाती ही थां यह दृष्टि का खेल हैं दृष्टि निर्मल है तो, मनीषियो! सर्वत्र आपको भगवान् नजर आते हैं और दृष्टि निर्मल नहीं है तो तीर्थों में भी घूम आयेगा, लेकिन तीर्थ नजर नहीं आयेगां आचार्य योगीन्दुदेव ने 'योगसार' जी में लिखा है कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र से युक्त आत्मा ही तीर्थ हैं रयणत्तय संजुत्त जिउ उत्तिमु तित्थु पवित्तुं मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु 83(यो.सा.) भो चेतन! ध्यान रखना, जो परिणति अंतरंग की हो, वही परिणति बाहर की रखनां मति व श्रृत ज्ञान के बल पर तूने विपरीत परिणमन कर लिया तो जिनदेव सामने नहीं हैं, जिनवाणी मूक है, गुरु ही हैं जो बोल रहे हैं जिनवाणी माँ कह रही है- मेरे लालो! तेरी माँ ने तेरे पुद्गल को जन्म दिया है, पर मैंने तेरी प्रज्ञा को जन्म दिया हैं तेरे माता-पिता ने तो तुझे यह रक्त व पीव से भरे मल-लिप्त शरीर को जन्म दिया है, पर मैंने तेरी भगवती आत्मा को दिखाने वाली प्रज्ञा को जन्म दिया है, और उस प्रज्ञा को प्राप्त करके कहीं तूने मेरी छाती पर पैर रख दिया तो? मनीषियो! सबके अपमान सहन कर लेना, पर माँ जिनवाणी का सम्मान मत मैटनां ध्यान रखना, कहीं भी पंचपरमेष्ठी भगवान् नहीं मिलेंगे, एक मात्र जैन- शासन ऐसा है जिसमें अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को भगवान् की संज्ञा दी हैं मनीषियो! भाग्य सुधार लों भाग्य मानो, सौभाग्य मानो कि ऐसे कलिकाल में भी हमें भगवान् का रूप दृष्टिगोचर हो रहा हैं। भो ज्ञानी! पंडित टोडरमल जी, दौलतराम जी, बनारसीदास जी जैसे विद्वान तो तड़फते-तड़फते चले गये, पर इन्हें गुरु के दर्शन नहीं हयें इसलिए, जीवन में यदि वीतरागवाणी का संवेदन करना है, वीतराग वाणी के वास्तविक रूप को समझना है तो, भो ज्ञानी आत्माओ! पुनः दृष्टि डालना एक मुमुक्षु जीव को पाषाण में परमेश्वर दिखता हैं अज्ञानी ऊपर-ऊपर उछलता है, जबकि तत्त्व-ज्ञानी द्रव्यदृष्टि से देखता है कि, अहो! Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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