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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 39 of 583 ISBN # 81-7628-131- 3 v -2010:002 भो ज्ञानी! परमार्थ-तत्त्व को समझने के लिये व्यवहारदृष्टि से देखते हैं तो खड़िया से पुती दीवार, चूने से पुती दीवार को भले ही आप 'सफेद दीवार' कहते हो, लेकिन दीवार सफेद नहीं है, सफेद तो चूना हैं चूना दीवार पर पुता है, इसलिये हम दीवार को सफेद कहते हैं इसी प्रकार आत्मा, शरीर नहीं है, आत्मा पुद्गल नहीं है, किन्तु आत्मा शरीररूप कही जा रही हैं मनुष्य होने के कारण यह आत्मा भी शरीररूप कही जा रही हैं यह मनुष्य है, यह तिर्यंच हैं, यह नारकी है, ये भी मनीषियो! भूतार्थ नहीं, सभी अभूतार्थ हैं मनीषियो! इस संसार के स्वरूप को तुमने अनंतकाल से नहीं समझा हैं संसार के स्वरूप को न समझने के कारण ही तुम संसार में फँसे हों अब कुछ उस दिशा/दशा को भी देखो, कि आज तक तुम संसार को क्यों नहीं समझ सके हो? एक नीलमणि को दुग्ध के बर्तन में आपने छोड़ दिया,पूरा दूध नीला दिखता हैं दूध नीला क्यों दिखता है ? क्योंकि मणि की आभा से दूध नीला झलक रहा हैं ऐसे ही यह चैतन्यमयी आत्मा इस शरीर में है, इसलिए यह शरीर चैतन्य कहला रहा है, परंतु आत्मा चैतन्य है, शरीर जड़ हैं उस मणि के कारण दूध को तू नीला निहार रहा हैं आचार्य भगवन् कह रहे हैं कि, हे जीव! शरीर के संयोग से शरीर को चैतन्य मानकर पता नहीं तूने कितने कर्मों को आमंत्रित किया हैं यथार्थ बताना, कितना समय आपने शरीर को दिया है और आत्मा को कितना समय दिया ? यह समय अपने शरीर को दिया होता तो भी समझ में आता, पर आपने संयोग संबंधों को दिया हैं अहो प्रज्ञात्मन्! आप जितना अपने पीछे नहीं रो रहे, उतना पर-संयोग के पीछे रो रहे हों आपने इन संयोगों को जीव की स्वभावदृष्टि से देखा हैं ध्यान रखना, जितने संयोग हैं उतने ही वियोग हैं और जितना वियोग है, उतना ही रोना है, इसलिये आचार्य भगवन् इस व्यवहार को अभूतार्थ कह रहे हैं पाँचवीं कारिका में आचार्य भगवन ने कह दिया कि निश्चय भूतार्थ हैं वह ही सत्यार्थ हैं इसे बहुत स्थूलदृष्टि से समझ लो कि जब आप कहीं बाहर विदेश में होते हो, तो अपने देश के व्यक्ति को आप भाई कहते हों वहाँ पर आप जाति नहीं देखते हो, पंथ नहीं देखते हो, आम्नाय नहीं देखते हो, वहाँ पर तो आपको देश दिखता है और जब तुम भारत में आ जाते हो तो प्रदेश झलकने लगता है, संभाग झलकने लगता है और कहीं आप विदिशा पहुँच जाते हो तो मोहल्ले वाले को भाई कहने लगते हों संभाग का भाई समाप्त हो गया और जब आप मोहल्ले में ही आ जाते हो तो पड़ोसी भाई होने लगता है और जब घर में पहुँच जाते हो तो भाई भाई दिखता है, तो फिर तुम सगे को देखने लगते हों यथायोग्य निश्चय-व्यवहार का यह संयोग भूतार्थ हैं भो ज्ञानी! जिस दिन संत बन जाओगे उस दिन सगे भी तुम्हें पराये दिखेंगे और जिस दिन स्वरूप में चले जाओगे उस दिन ये पुदगल भी पराया हो जायेगां अतः, दृष्टि को सम्यक रखनां वस्तस्वरूप यही है, यही भूतार्थ है, यही सत्यार्थ हैं वास्तविक तत्व यही है बाकी सब व्यवहारिकता हैं जैसे-जैसे आप अपने पास आते हो, वैसे-वैसे संबंध तुम्हारे छूटते जाते हैं छठवीं कारिका में अमृतचंद्र स्वामी गहनतम बात करने जा रहे Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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