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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 357 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 भो ज्ञानी! जैनदर्शन में सबसे उत्कृष्ट साधना ध्यान हैं ध्यान ही निर्वाण का साक्षात हेतु हैं ध्यान के अभाव में कोई निर्वाण चाहता है तो हमारे आचार्य भगवन्तों ने कहा है- ध्यानहीना न पश्यन्ति, जात्यन्धा इव भास्करम् (9/ परमा स्तो.) जैसे कि जन्मांध को सूर्य के दर्शन नहीं होते हैं, वैसे ध्यान के बिना निर्वाण की प्राप्ति नहीं होतीं तुम पंचम काल में विराजे हो, आर्त्त और रौद्र ध्यान किया है तथा परिग्रह ही आर्त्त रौद्र ध्यान की मूल वस्तु है, क्योंकि नष्ट हो जाये तो चिंता और नहीं आ रहा है, तो चिंता! चला जा रहा है तो चिंता दूसरे का दिख रहा है तो चिंतां अहो! कितनी महिमा है पैसे में ? निर्मोही बनने के लक्षण जिनके पास हैं वह भी उससे मोहित हो जाते हैं, ऐसी महिमा परिग्रह की हैं इसलिये आचार्य महाराज ने इसे ग्यारहवाँ प्राण कह दिया हैं जहाँ देखो वहाँ धन परिग्रह की पूजा हैं लेकिन उसकी पूजा करने से पूज्य नहीं बन पाओगे और पूजा करने से लक्ष्मी भी नहीं आती हैं। - भो ज्ञानी ! यह सिद्धांत है कि जब तक परद्रव्य का समूह विराजा है, तब तक धर्म ध्यान भी दूर हैं इसीलिये चतुर्थ गुणस्थान में उपचार से धर्म ध्यान कहा हैं पंचम गुणस्थान, छठवें गुण स्थान तक में शुद्ध धर्म ध्यान नहीं है शुद्ध धर्म ध्यान तो सप्तम गुणस्थान से हैं आचार्य देवसेन स्वामी ने ऐसा तत्त्वसार में कहा हैं शुद्ध धर्म ध्यान याने जहाँ आर्त्त व रौद्र ध्यान का लेश नहीं है, वह सप्तम गुणस्थान में हैं छठवें गुणस्थान में रौद्र ध्यान तो नहीं होता, लेकिन आर्त ध्यान होता है यह आतं ध्यान तुम्हें प्रसन्न नहीं होने देगा, तुम्हें विशुद्ध नहीं बनने देगा, तुम्हें निर्मल नहीं बनने देगा; क्योंकि आर्त्त ध्यान को जन्म देने वाली सामग्रियाँ उपलब्ध हैं संघ त्याग, परिग्रह का त्याग, कषायों का उपशमन, इन्द्रियों का दमन और व्रतों का धारण करना - यह ध्यान को जन्म देने वाली सामग्री हैं इसलिये जब अशुभ- चिंतवन होता है तो मानसिकता भी बिगड़ती है, विकार भी बढ़ते हैं और अशुभ-कर्म का द्रव्य भी बढ़ता हैं वही योगी जब धर्म ध्यान में होता है तो जो शक्ति क्षीण हो रही थी, वही शक्ति ओज बन जाती हैं अतः, ज्ञान की एकाग्रता का नाम ही ध्यान हैं भगवान् पूज्यपाद स्वामी ने 'सर्वार्थ-सिद्धि' ग्रंथ में लिखा है कि चित्त की एकाग्रता का नाम ही ध्यान हैं 'ज्ञान से ध्यान और ध्यान से निर्वाण' - ऐसा 'रयणसार' ग्रंथ में भी लिखा हैं अहो! अपने आपसे चर्चा करने का, अपनी सत्ता का भान होने का, यदि कोई स्थान है तो उसका नाम ध्यान हैं भो ज्ञानी! जिस जीव को आत्म ध्यान करना है, जिसे निज स्वभाव का स्वाद चखना है, उसे परिग्रह का विसर्जन करना होगा, त्याग करना होगां सेठजी एक दिन अपने पालतू तोते से कहते हैं कि मैं मुनि महाराज के पास धर्म-उपदेश सुनने जा रहा हूँ, आपको कुछ पूछना हो तो बताओं तोता कहता है- महाराज जो उपदेश देंगे, वही आप मुझे सुना देनां जैसे ही दूसरे दिन सेठजी वापस आते हैं, तोते ने पूछा- सेठजी ! आपने क्या उपदेश सुना? सेठजी बोले- मुनिराज ने धर्म-उपदेश में कहा कि त्याग करने से आत्मा बंधन मुक्त हो जाती हैं तोता बड़ा भेद ज्ञानी था, समझ गयां उसे दोपहर को Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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